Saturday, May 19, 2007

महानगरों में रहते बच्‍चे

महानगरों में रहते बच्‍चे
अकबकाये से पहुंचते हैं अपने छोटे शहरों में
भयभीत करते हैं उन्‍हें बुजुर्गों के चेहरों पर बने उम्र के निशान
आतंकित करती है संबंधों के बीच पसरी शुष्‍कता
उनके शहर भूल चुके हैं पुराना अपनापन
छा गया है कोहरा निर्लिप्‍तता का
बस आधे घंटे में खत्‍म हो जाती हैं पिता की बातें
मां खुद कुछ नहीं कहतीं पर बहुत कुछ कहती हैं उनकी आंखें
एक कुशल गृहिणी की औपचारिकता ओढ़ ली है बहनों ने
और भाई भी अब भूल गये हैं शरारतें
मिलने के बाद भी दोस्‍त लगते हैं इतनी दूर कि उनकी आवाज भी सुनाई नहीं देती
छोटा सुस्‍त शहर पसर रहा है तेजी से,
सीख चुका है संबंधों की बदमाशियां, हिसाब किताब और चालाकियां
बहुत सारी फुरसत वाला ये शहर अब नहीं मिलता पुरानी शिद्दत से
पहुंचते तो हैं अकबकाये से महानगरों में रहने वाले बच्‍चे, अपने छोटे शहरों में
पर लौटना पड़ता है उन्‍हें घबराकर, सिर्फ दो ही दिनों में

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17 टिप्‍पणियां:

Mired Mirage May 19, 2007 at 4:20 AM  

शायद यही है जिन्दगी !
घुघूती बासूती

Divine India May 19, 2007 at 5:23 AM  

अदाएं यह भी है आपके पास मुझे मालुम थोड़ा देर से पड़ा मगर जब शुरु किया यह भी पढ़ना कुछ सोंचने को बचा ही नहीं बस मूक पाठक हो रमता गया…।

ratna May 19, 2007 at 5:25 AM  

पर यही छोोटे शहरों के बच्चे
जब लौटते है वापिस महानगरों में
पसरीी दूरी उन्हें तड़पाती है
माँ की थपकी की याद सताती है
कानों में गूंजती हैै बहन की मनुहार
पिता की प्यार भरी डांट-औ-फटकार
यादों की इन उभरती आवाज़ो को वो
महानगरों के कोलाहल तलेे दबाते है
तभी शायद अपने फुुरसत के पलों को
सिनेमा हाल,डिस्को और बार में बितााते है।

परमजीत बाली May 19, 2007 at 5:50 AM  

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

Manish Kumar May 19, 2007 at 7:04 AM  

महानगरीय जिंदगी जी रहे बच्चों का अच्छा खाका खींचा है आपने इन पंक्तियों में !

ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey May 19, 2007 at 4:13 PM  

आप काम के मनई लगते हैं. वैसे भी टीवी हे अपन को एलर्जी है. रेडियो अच्छा लगता है. आप से जमेगी.
और ये बच्चों वाली बात में आप भी सही हैं और रसोई वाली रत्ना जी भी. जो जहां है वो वहां के अलावा असहज है.

Gurnam Singh Sodhi May 19, 2007 at 11:32 PM  

बस आधे घंटे में खत्‍म हो जाती हैं पिता की बातें

bahut achi kavita hai....

सजीव सारथी May 20, 2007 at 2:44 AM  

यूनुस भाई .... बहुत सुन्दर और मार्मिक कविता लिखी है आपने ... बहुत बहुत बधाई ..

mamta May 20, 2007 at 3:43 PM  

बहुत ही अच्छी रचना है

mahashakti May 21, 2007 at 12:29 AM  

बढि़यॉं कविता बधाई

धुरविरोधी May 21, 2007 at 2:47 AM  

यूनुस भाई, बहुत बहुत हृदयस्पर्शी लिखा है.

Anonymous,  May 21, 2007 at 6:28 PM  

bahut khoob yunus khan jee.
Akhir aapne manvaa liya ki bahut acchhe kavi bhi hai aap.

Annapurna

निखिल आनन्द गिरि May 31, 2007 at 2:52 AM  

wah-wah yunus ji.....ek kavi ka hi jaadu hai jo aapke kai programs mein sar chadhkar bolta hai...ras bhi gholta hai.......ek samvedansheel vyakti ko dusre samvedansheeel ka salaam......

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