Saturday, June 16, 2007

मशहूर सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब की गुलज़ार की कॉमेन्‍ट्री और शीर्षक गीत जगजीत चित्रा और विनोद सहगल की आवाज़ों में । एक नायाब ऑडियो ।

प्रिय मित्रो
गुलज़ार जब लिखते हैं तो हमारे मन को मोह लेते हैं और जब वो बोलते हैं तो वाह वाह कहने ही क्‍या । शायद उन्‍हें अपनी आवाज़ देने का शौक़ भी है । उनके कई ऐसे अलबम हैं जिनमें उन्‍होंने कमेंन्‍ट्री की है । मुझे इसमें सबसे ज्‍यादा पसंद है एक गुमनाम अलबम ‘बूढ़े पहाड़ों पर’ । शायद ही आपने इस अलबम का नाम सुना हो । पर ये मेरे संग्रह की नायाब चीज़ों में से एक है । किसी दिन मौक़ा लगा तो इसे अपने चिट्ठे पर सुनवाऊंगा । फिलहाल एक नायाब चीज़ की बात ।

बहुत बरस पहले गुलज़ार ने मिर्ज़ा ग़ालिब पर एक सीरियल बनाया था, जिसमें नसीरूद्दीन शाह ने ग़ालिब का किरदार निभाया था । उन दिनों मैं स्‍कूल में पढ़ा करता था और ग़ालिब वालिब ज्‍यादा समझ नहीं आते थे । लेकिन रोचकता और जिज्ञासा का तकाज़ा था कि उस सीरियल को देखा करता था ।

बाद में किसी मित्र के पास उस सीरियल के नग्‍मों का एक रिकॉर्ड दिखा, उसे सुना तो पाया कि गुलज़ार की वही कॉमेन्‍ट्री है, जो उस सीरियल में हुआ करती थी । फिर जब विविध भारती में आया तो वो मेरा प्रिय रिकॉर्ड बन गया जिसे मैं अकसर सुन लिया करता हूं ।

आज मुझे उसी रिकॉर्ड के कुछ अंश मिले हैं । ये वही इब्तिदा वाला हिस्‍सा है । जिसमें गुलज़ार ने कॉमेन्‍ट्री की है-----

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अभी अभी सागर भाई का संदेश आया है, शायद ऊपर वाला विजेट बज नहीं रहा है । मैं फ्लैश प्‍लेयर भी लगा रहा हूं । वहां ना बजे तो आप यहां सुन सकते हैं ।

Ibteda - Gulzar ,...




पहले जगजीत सिंह की आवाज़ में आता है ये शेर



हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्‍छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयां और ।।



फिर बांसुरी की विकल तान के बीच गुलज़ार हमें मिर्ज़ा ग़ालिब के घर की तरफ लिये चलते हैं ये बातें कहकर----


बल्‍लीमारान के मुहल्‍ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां

सामने टाल के नुक्‍कड़ पे बटेरों के

गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वाह

चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे

एक बकरी के मिमियाने की आवाज़

और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे, ऐसे दीवारों से मुंह जोड़के चलते हैं यहां


चूड़ीवालान के कटरे की बड़ी बी जैसे, अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोलें

इसी बेनूर अंधेरी सी गली-क़ासिम से

एक तरतीब चराग़ों की शुरू होती है

एक क़ुराने सुख़न का सफा खुलता है

असद उल्‍ला ख़ां ग़ालिब का पता मिलता है


इसके बाद आती है जगजीत सिंह की आवाज़ । और जगजीत ने गाये हैं ग़ालिब के ये अनमोल शेर---


हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्‍या है

तुम्‍हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्‍या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल

जब आंख ही से ना टपका तो फिर लहू क्‍या है ।।



फिर ये आवाज़ डिफ्यूज़ होती है विनोद सहगल के गाये कुछ शेरों से जो मैंने नीचे लिखे हैं । उफ़ क्‍या कशिश है विनोद की आवाज़ में ।
पर पहले विनोद के बारे में कुछ बातें । अस्‍सी के दशक में जगजीत सिंह ने कुछ प्रतिभाओं को खोजा था, उसमें घनश्‍याम वासवानी और विनोद सहगल जैसे कई नौजवान शामिल थे । किस्‍मत ने विनोद का उतना साथ नहीं दिया और कुछ अलबमों के बाद वो गुमनामी के अंधेरों में खो गये । बरसों पहले फिल्‍म माचिस में उन्‍होंने हरिहरन के साथ ‘चप्‍पा चप्‍पा चरख़ा चले’ गाया था । मैं विनोद सहगल को जानता और मानता हूं । अगर आप ये शेर सुनें तो आप भी उनकी क़द्र करेंगे । और अगर मौक़ा मिले तो इसी अलबम से ग़ालिब की वो ग़ज़ल सुनिए ‘कोई दिन गर जिंदगानी और है’ इसे विनोद ने इतनी शिद्दत से गाया है कि पूछिये मत । फिलहाल ये शेर--

चिपक रहा है बदन पे लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ऐ-रफ़ू क्‍या है


यहां से विनोद सहगल की आवाज़ नेपथ्‍य में जाती है और आती है चित्रा सिंह की आवाज़, जिनका मैं मुरीद रहा हूं । जगजीत और चित्रा की ग़ज़लों ने अस्‍सी के दशक में तूफ़ान मचाया था । फिर नब्‍बे के आसपास उनका बेटा एक सड़क दुर्घटना में मारा गया और चित्रा जी ख़ामोश हो गयीं । अब वो ना किसी से मिलती हैं और ना ही गाती हैं । हां अपने बेटे को श्रद्धांजली देते हुए उन्‍होंने जगजीत के साथ अलबम निकाला था ‘समवन समवेयर’ जो मेरे संग्रह में आज भी है ।


जला है जिस्‍म जहां दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख, जुस्‍तजू क्‍या है ।।

हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्‍या है

तुम्‍हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्‍या है ।।


कुल मिलाकर गुलज़ार की ये प्रस्‍तुति वाक़ई नायाब है । वो अपने शब्‍दों से एक समां बांध देते हैं, एक चित्र खींच देते हैं । इसीलिये हम गुलज़ार के मुरीद हैं । ये अलग बात है कि पिछले कई सालों से मैं उनके पीछे पड़ा हूं और वो इंटरव्यू के लिए राज़ी नहीं हो रहे ।


ये है विनोद सहगल की आवाज़ में सुनिए ‘कोई दिन गर जिंदगानी और है’

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कोई दिन गर जिंदगानी और है,

अपने जी में हमने ठानी और है ।।

बारहा देखी हैं उनकी रंजिशें,

पर कुछ अबके तरगेरानी और है ।।

देके ख़त मुंह देखता है नामावर,

कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है ।।

हो चुकीं ग़ालिब बलाएं सब तमाम,

एक मरगे नागहानी और है ।।




अब sms के ज़रिए पाईये ताज़ा पोस्‍ट की जानकारी

16 टिप्‍पणियां:

Manish Kumar June 16, 2007 at 11:01 PM  

यै कैसेट मैंने १९८९ में खरीदी थी । उस वक्त सबसे पहले जो गजल अपनी डॉयरी में उतारी थी वो कोई दिन गर जिंदगानी .. ही थी . आज भी इसे गुनगुनाने में उतना ही मजा आता है। बाकी जग्गू जी और गुलजार का काम बहुत बढ़िया था इस एलबम में।
बाकी गुलजार की ये कमेंट्री तो हमेशा से मन में नख्स है । बूढ़े पहाड़ों पर मैंने नहीं सुनी ,सुनवाना जरूर।
अपने एलबम फुरसत के रात दिन में गुलजार ने जो कमेट्री की है गीतों के बारे में वो मेरी पसंदीदा है। यहाँ उसे लिखा भी था
http://manishkmr.blogspot.com/2005/04/mere-sapne-mere-geet.html

Sagar Chand Nahar June 17, 2007 at 12:28 AM  

यूनूस भाई
गुलजार साहब की कमेन्ट्री वाले लिंक में कुछ गड़बड़ है, बज नहीं रहा है।
जगजीत सिंह - चित्राजी का समवन समवेयर मेरा सबसे पसंदीदा एल्बम है। इस की एक नज़्म वो मजा कहाँ वस्ल-ए-यार में जिस खूबसूरती सेदोनों ने गाया है मानो गाते समय भी दोनो अपने पुत्र के विरह में रो रहे हों।
विनोद सहगल की आवाज अभी सुनना बाकी है पहले आपको टिप्प्णी लिख दी है। :)

yunus June 17, 2007 at 12:59 AM  

सागर भाई आपकी टिप्‍पणी देखकर मैंने इसे जांचा कभी कभी बजने में दिक्‍कत कर रहा है । चार बार सुना । एक बार दिक्‍कत हुई । इसलिये मैंने ओरीजनल पेज का लिंक भी डाल दिया है ।
मनीष आपकी यादें जानकर अच्‍छा लगा । बूढ़े पहाड़ों पर जल्‍दी ही सुनवाता हूं ।

सजीव सारथी June 17, 2007 at 1:02 AM  

यूनुस भाई इस बार तो आपने मेरी नब्ज पकड़ ली है ... बूढे पहाड़ों पर मेरे भी संग्रह में है .... मेरा ख़याल है "यार जुलाहे " गीत उसी मैं है .... खुदा करे कि आपको गुलज़ार साब से मिलने का मौका जल्दी ही मिले ... वैसे एक पुस्तक है मीरा जिसमे फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट के साथ साथ गुलज़ार का एक लम्बा interview भी है .... विनोद के बारे में आपकी जानकारी मेरे लिए बिल्कुल नयी थी ... जगजीत सिंह ने अल्बुल cry for cry मे एक चोटी बच्ची से दो प्यारे प्यारे गीत गवाये थे ॥ क्या उसकी कोई जानकारी मिल सकती है

yunus June 17, 2007 at 1:19 AM  

सजीव भाई, अच्‍छा लगा जानकर कि आपके पास ‘बूढ़े पहाड़ों पर’ है । उसके सारे गीत मेरी पसंद के हैं । याद दिलाऊं क्‍या । यार जुलाहे का तो आपने जिक्र किया ही है । एक है—‘मुझको छोटे से काम पे रख लो, जब भी सीने पर पड़ा लॉकेट उल्‍टा हो जाये तो मैं हाथ से सीधा करता रहूं उसको ।‘ या फिर ‘ इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं
बदला’ । इसके अलावा इसमें ‘कल की रात गिरी थी शबनम’ और ‘तेरी आंखें’ या इस बारिश के मौसम का गीत ‘ बैरागी बादल छाये’ । पता नहीं क्‍यूं इसका प्रचार ठीक से नहीं हुआ था । पैन म्‍यूजिक पर था ये कैसेट । अब शायद ये कंपनी भी बंद हो गयी
है । आपको सलाह दूं—कैसेट को डिजीटाईज़ करा लीजिये । वरना वो बेकार हो सकता है थोड़े दिन में ।

Suresh Chiplunkar June 17, 2007 at 2:32 AM  

यूनुस भाई,
सदा की तरह ही उम्दा पोस्ट, पिछले (हिमेश रेशमिया वाली) पोस्ट पर भी टिप्पणी करते-करते रह गया... मेरे यहाँ भी लगातार विविध भारती बजता रहता है (सुबह से शाम तक), लोग-बाग आकर पूछते हैं कि इतने अच्छे गाने आप कैसे लगाते हैं (?), जब मैं उन्हें बताता हूँ कि विविध भारती भी FM पर आता है तो आश्चर्य करते हैं, जैसे मानो FM मतलब कान्दा-मिर्ची ही हो, फ़िर काम करते-करते विविध भारती के साथ गुनगुनाता हूँ, तो उनका अचरज दोगुना हो जाता है कि आपको ये सारे गाने कैसे याद हैं, फ़िर मैं निरुत्तर हो जाता हूँ... क्या कहूँ.. जिसने विविध भारती के साथ उसे जिया है, जिसने लता मंगेशकर / रफ़ी आदि को बचपन से सुना है... उसे तो ये गाने याद रहने ही हैं... गीत तभी याद रहता है, जब वह दिल को छू जाये या वह आपकी किसी पुरानी याद से जुडा़ हो... अब आजकल शब्दों से ज्यादा तो वाद्य होते हैं, क्या दिल से छुयेगा ? और रही बात उम्र की... आपने बिलकुल सही फ़रमाया (मेरी भी उम्र ४२ वर्ष ही है), और मुझसे कुछ ही छोटे युवा मुझसे पूछते हैं कि शमशाद बेगम कौन हैं ? तलत महमूद इतनी धीमे क्यों गाते हैं ? और भी बहुत से प्रश्न.. मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है.. लेकिन इस बात का पूरा विश्वास है कि पुराने संगीत का कोई तोड नहीं है और उसका भविष्य भी उज्जवल है, क्योंकि जब युवा पीढी पैसे की दौड से झटका खाकर बाहर आयेगी.. तो यही गीत उन्हें सहलायेंगे...

अमित June 17, 2007 at 2:50 AM  

शुक्रिया यूनुस भाई. मिर्ज़ा ग़ालिब मेरे भी पसंदीदा धारावाहिकों में रहा है. चूंकि उस समय उतनी समझ नहीं थी, बहुत सी चीजों की गहराई नहीं देख पाया.

शीर्षक गीत में गुलज़ार साब की कमेण्ट्री के बोलों को लिखने में में कुछ गड़बड़ हुई लगती है. मेरे विचार से सही पंक्तियां हैं:

बल्‍लीमारान के मुहल्‍ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां

और

एक क़ुरान-ए-सुखन का सफ़हा खुलता है

yunus June 17, 2007 at 7:07 AM  

अमित जी आपका कहना सही है । मैं जल्‍दी ही चिट्ठे में संशोधन कर देता हूं ।
दरअसल ऑडियो को सुनकर इबारत लिखी है । सुनने में चूक हो गयी ।

Raviratlami June 17, 2007 at 3:46 PM  

:)

वाद्य संगीत - खासकर जलतरंग पर कुछ लिखिए, व लिंक दीजिए :)

उन्मुक्त June 17, 2007 at 4:38 PM  

वाह मजा आ गया।

Neeraj Rohilla June 18, 2007 at 5:28 PM  

यूनुसजी,

आज पहली बार आपके चिट्ठे पर टिप्पणी लिख रहा हूँ, लेकिन आपका चिट्ठा पढता रेगुलरली हूँ ।

विनोद सहगलजी के बारे में आपने इतना लिखा है तो आप ये भी जानते होंगे कि एक टी. वी. सीरियल "कहकंशा" के लिये भी उन्होने कुछ गजल/नज्म गायीं थी । "कहकंशा" मेरी राय में एक संगीतकार और गायक दोनों की हैसियत से जगजीत सिंह की प्रतिभा की पराकाष्ठा है । मेरे पास कहकंशा के सभी गीतों की एम. पी. फ़ाईल हैं यदि आपको कभी आवश्यकता पडे तो बताईयेगा । यदि आपने कहकंशा के गीत सुने हैं तो उनपर जरूर लिखियेगा ।

साभार,
नीरज रोहिल्ला

yunus June 18, 2007 at 8:33 PM  

रवि भाई जलतरंग का फिल्‍मी गीतों में भी बहुत प्रयोग हुआ है । थोड़ा समय दीजिये जल्‍दी ही लिखूंगा इस पर ।

नीरज भाई । आपने कहकशां की अच्‍छी याद दिलाई । दरअसल मशहूर शायर अली सरदार जाफरी का प्रोडक्‍शन था वो । आपके पास जो सामग्री है अगर भेज पायें या फिर किसी साईट पर लोड करके लिंक दें तो अच्‍छा होगा, जैसी सुविधा हो । मैं जरूर लिखना चाहूंगा । ये जानकर अच्‍छा लगा कि आप नियमित पढ़ते हैं । बस नियमित हौसला अफ़ज़ाई भी करते रहिए । मुझे अच्‍छा लगेगा ।

Abhishek June 20, 2007 at 7:20 PM  

Yunus bhai,
Mirza Ghalib TV serials ki complete DVDs ab market me uplabdh hain (aapki jaankari ke liye - yadi aapko pahle se na pata ho ye baat). 2 DVDs hain aur shayad 13 ya 17 serials hain. Maine Khareed kar ek weekend me hi dekh daakh ke nipta dee. Bahut achchha laga fir se dekh kar sab kuchh.

सिंधु श्रीधरन,  June 22, 2007 at 7:43 AM  

यूनुस भैया,

ग़ालिब साहब के मुरीद तो हम हैं ही, लेकिन ’मिर्ज़ा ग़ालिब’ हमारे पसंदीदा albums में से एक है।

हर बार जब जगजीत जी की आवाज़ के बाद "जब आँख ही से ना टपका..." बजता, मै सोचती, "कितनी प्यारी आवाज़ है!"। विनोद सहगल के बारे में जानकारी देने के लिए और ’कोई दिन गर ज़िंदगी और है’ सुनाने के लिए आभार। बहुत अच्छा लगा।

’बूढ़े पहाड़ों पर’ भी कभी सुनाइएगा। हमें इंतज़ार रहेगा।

आपका चिट्ठा भा गया। Bookmark कर लिया है, अब तो हम आते रहेंगे।

शुक्रिया,
सिंधु

yunus June 23, 2007 at 7:26 PM  

धन्‍यवाद सिंधु जी । आपको मेरे ब्‍लॉग के बारे में पता कब और कैसे लगा ये जरूर बताईयेगा । ये जानना मेरे लिए दिलचस्‍प होगा ।

Perahan,  August 12, 2007 at 5:08 AM  

सच मे युनुस भाई आप ने फिर से पढ़ाई के दिन याद करा दिए उत्तम प्रस्तुति

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