Friday, November 2, 2007

चौदहवीं रात के इस चांद तले--गुलज़ार की एक क्रांतिकारी नज़्म


फिर मुझे भूपेंद्र/भूपिंदर सिंह की आवाज़ का हैंगओवर हो गया है । बरसों पहले जब मध्‍यप्रदेश में एक छोटे-से रेडियो-स्‍टेशन पर युववाणी किया करता था तो भी यही हुआ था । वो कॉलेज के दिन थे । एक तो ग़ज़लों का शौक़ । दूसरे ताज़ा ताज़ा रेडियो शुरू किया था । उन दिनों जिस तरह का ज़ेहन था, ग़ज़लें दिल में गूंजती रहती थीं । बेवजह अच्‍छी लगती थीं । उन दिनों अपन मेहदी हसन की अनसुनी रचनाएं सुनने के लिए रेडियो पाकिस्‍तान ट्यून करते थे । उर्दू सर्विस सुनते ताकि उर्दू से अच्‍छा-सा परिचय हो जाये । बाक़ायदा उर्दू की तालीम विज्ञान की पढ़ाई की वजह से मिली नहीं ।

बहरहाल जगजीत-चित्रा के बाद भूपिंदर-मिताली की जोड़ी के कुछ अलबम उन दिनों दिल पर छाये रहे थे । फिर कुछ और गहराई में उतरे तो भूपिंदर के कुछ experimental एलबम मिल गये । उनमें से एक था वो एल‍बम जिसका एक क्रांतिकारी गीत मैं आपको सुनवा रहा हूं । जैसे ही ये गीत मुझे मिला है मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । आप समझ नहीं सकते कि कितने अरसे से मैं इस गीत की तलाश में था ।

भूपिंदर की आवाज़ में भावुक रचनाएं बहुत प्‍यारी लगती हैं । उनकी आवाज़ की नरमी उनकी दौलत है । दूसरी ख़ासियत ये है कि जब ज़रूरत हो तो वो अपनी आवाज़ को बहुत ऊंचे सुरों तक ले जाने की काबलियत रखते हैं । आगे चलकर ऐसे कुछ गाने भी आपको सुनवाये जायेंगे । पर अभी ये गीत सुनिए । जिसे गुलज़ार ने लिखा है । संगीत खुद भूपिंदर का है । इस प्रायोगिक अलबम में कई पश्चिमी-शैलियों को अपनाया गया था ।

ज़रा एक शेर सुन लीजिए--
कहते हैं कि इश्‍क नाम के गुज़रे हैं एक बुज़ुर्ग
हम लोग भी फ़कीर उसी सिलसिले के हैं ।।

यहां 'इश्‍क' की जगह गुलज़ार का नाम रख दीजिए, फिर पढि़ये । जी हां हम भी गुलज़ार के शैदाईयों में से हैं । उनके लिखे को कोई भी गाये हम खोज-बीन करके जुटा लेते हैं । सुनते हैं और फिर अपनी बेबाक राय भी देते हैं । शैदाई हैं लेकिन उनकी ऐसी-वैसी रचना को खारिज करने में ज़रा भी चूक नहीं करते । तभी तो सच्‍चे शैदाई कहलाए ना । इस रचना के आगे गुलज़ार की सारी लेखनी को एक तरफ़ कर सकते हैं हम । जी हां । इसलिए, क्‍योंकि ये एक साहसी रचना है । हो सकता है कि लिखते वक्‍त गुलज़ार की कलम भी थरथराई होगी । लेकिन उनके भीतर का हिम्‍मती / हिमाकती शायर अड़ गया हो, कि जो लिख दिया सो लिख दिया । पहेली को उलझाना ठीक नहीं होगा, चलिए इस रचना के बोल पहले पढ़े जायें । ताकि आपके सामने बात साफ़ हो सके ।

चौदहवीं रात के इस चांद तले
सुरमई रात में साहिल के क़रीब *साहिल-किनारा
दूधिया जोड़े में जो आ जाये तू ।

सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में जो आ जाये तू
ईसा के हाथों से गिर जाए सलीब
क़सम से, क़सम से ।

सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाये जो तू
बुद्ध का ध्‍यान भी उखड़ जाए
क़सम से, क़सम से ।

सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाये जो तू
तुझको बर्दाश्‍त ना कर पाए ख़ुदा
क़सम से, क़सम से ।

इस गाने में कुछ ऐसी पंक्तियां आपको मिल गयी होंगी जिन पर मज़हबी-मठाधीश हंगामा खड़ा कर सकते थे । लेकिन अच्‍छा हुआ कि ऐसा कुछ नहीं हो सका । उन्‍होंने इसे सुना ही नहीं होगा । गिटार के बेस पर इस नज्‍़म को पिरोया गया है । शानदार कंपोज़ीशन और उससे भी अच्‍छी और नशीली गायकी । सुनिए--
इस नज़्म से पहले गुलज़ार की लंबी-सी कॉमेन्‍ट्री है । ज़रा इसे भी सुनिएगा ध्‍यान से । इसमें उन नज़्मों की बात गुलज़ार कह रहे हैं जो इस अलबम का हिस्‍सा हैं--जैसे- आदतन तुमने कर दिये वादे, वो जो शायर था, बस एक चुप सी लगी है वग़ैरह । फिर ये नज्म आती है ।


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बताईये कि भूपिंदर की इस महफिल का सिलसिला कैसा लग रहा है । क्‍या इसे जारी रखना चाहिए ।

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8 टिप्‍पणियां:

ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey November 2, 2007 at 5:03 PM  

इस गाने में कुछ ऐसी पंक्तियां आपको मिल गयी होंगी जिन पर मज़हबी-मठाधीश हंगामा खड़ा कर सकते थे । लेकिन अच्‍छा हुआ कि ऐसा कुछ नहीं हो सका । उन्‍होंने इसे सुना ही नहीं होगा ।
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बड़ा सटीक ऑब्जर्वेशन है। मज़हबी-मठाधीश अपना दिमाग (जितना भी होता है!) पढ़ने-लिखने-सुनने में बर्बाद नहीं करते। पर गलती से उन्हे पता चल जाये तो भुनाने में पक्के उस्ताद होते हैं! :-)

अभय तिवारी November 2, 2007 at 5:22 PM  

आप माहौल बनायें और मज़ा न आयें .. क्या के रेहे हो म्याँ...

Srijan Shilpi November 2, 2007 at 9:40 PM  

बहुत-बहुत शुक्रिया, इस पेशकश के लिए।

Vikas Shukla November 3, 2007 at 2:51 AM  

वा भई, जारी क्यूं न रखा जाये ? जरूर जारी रखो !

Udan Tashtari November 3, 2007 at 3:24 AM  

अरे, इतनी बेहतरीन महफिल जमाई है. जरुर जारी रखिये. शुभकामनायें.

A fan of Bhupinder's voice,  November 3, 2007 at 6:48 AM  

भूपेन्द्र की गायकी अपनी ही तरह की सुन्दर है। गहरी सी आवाज़ और अलग ही तरह के गानें:बेजोड़ हैं।’वो जो शायर था’हो या ’किनारा’ या तो फिर ’फिर भी’भूपेन्द्र की आवाज़ बस सुकून ही सुकून दे जाती है।

Reyaz-ul-haque November 3, 2007 at 8:40 AM  

लाजवाब. आपसे ऐसी ही उम्मीद रहती है. आभार. हम तो बस सुना किये. कहा कुछ नहीं. अब कह रहे हैं क्योंकि रहा नहीं जा रहा. एक और गीत है-सूरजमुखी तेरा प्यार अनोखा है. फ़िल्म का नाम है सूरजमुखी.

सुनाइए न.

नितिन व्यास November 6, 2007 at 2:25 PM  

बहुत खूब।

क्या कभी कुछ बुंदेली लोकगीत भी सुनवा सकते है आप अपने खजाने में से?

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