Wednesday, January 16, 2008

रोज़ रोज़ आंखों तले एक ही सपना चले-फिर गुलज़ार

मैंने कई बार ये बात कही है कि कुछ फिल्‍में ऐसी होती हैं जो बर्दाश्‍त से बाहर होती हैं, उन्‍हें आप देख ही नहीं सकते, लेकिन ऐसी ही कुछ फिल्‍में ऐसी होती हैं जिनके कुछ गाने या हो सकता है कि जिनका एकाध गाना बहुत खूबसूरत बन पड़ता है । इसका मतलब साफ़ है कि गाने ज़्यादातर एक Independant entity की तरह होते हैं । उनका फिल्‍म से केवल विजुअल रिश्‍ता होता है, पर जब वो एक ऑडियो हैं, तो वो एक आज़ाद-ख्‍़याल की तरह होते हैं । और ये बहुत बढि़या-सी बात है ।

इसी वजह से हमें कुछ बेमिसाल गाने मिले हैं । आज मैं जो गीत लेकर आया हूं, उसकी फिल्‍म इतनी बुरी है कि किसी से बदला लेना हो तो इस फिल्‍म के साथ उसे कमरे में बंद कर दिया जाए । लेकिन दिलचस्‍प बात है कि इस फिल्‍म में गुलज़ार के गाने थे और आर डी बर्मन का संगीत । इस सबके बावजूद एक गाना ऐसा है जिसने फिल्‍म की सीमाओं को तोड़कर अपनी जगह बनाई । और गुलज़ार के अच्‍छे-प्‍यारे से गानों में ख़ुद को शामिल करवा लिया । मैं फिल्‍म 'जीवा' की बात कर रहा हूं । संजय दत्‍त और मंदाकिनी के अभिनय वाली इस फिल्‍म के निर्देशक राज एन सिप्‍पी थे । चलिए छोडि़ये इस फिल्‍म की बातें क्‍या करनी हैं । फिल्‍म संगीत के शौकीन इस गाने की फ़रमाईश करते हैं रेडियो पर । क्‍योंकि ये ज़्यादा बजता नहीं है । अगर आप कहीं बाज़ार जाकर किसी म्‍यूजिक शॉप में फिल्‍म जीवा का नाम लेंगे तो हो सकता है कि सेल्‍समैन आपको दूसरे ग्रह से आया हुआ प्राणी समझे । पर हम तो इस गाने के शैदाई हैं । वो इसलिए क्‍योंकि हम गुलज़ार के शैदाई हैं ।

बहुत अजीब-गीत है ये । जैसे गुलज़ार के ज़्यादातर गीत हुआ करते हैं । आप पढ़ेंगे तो पायेंगे कि कुल जमा तीन अंतरे हैं । संक्षिप्‍त से अंतरे । दो लाईनों वाले । लेकिन इस गाने की धुन और ऑरकेस्‍ट्रेशन कमाल है । मुझे रिदम का ये पैटर्न खासतौर पर पसंद है । पंचम ने अपने गानों में इस रिदम को काफी इस्‍तेमाल किया है । जैसे ही आप प्‍लेयर पर क्लिक करेंगे, आपको गाने का इंट्रो म्‍यूजिक एक दूसरी ही दुनिया में ले जाएगा । पता नहीं क्‍यों मन करता है कि ऐसे गानों को मिंट की गोली की तरह बस देर तक चूसते रहो, तन्‍हाई की महफि़ल सजाकर बैठे रहो और जब ये गाना हमसे बात करे तो कोई दूसरा कुछ ना बोले ।

एक और मज़ेदार बात । इस गाने में आशा भोसले के सहगायक हैं अमित कुमार । जो सिर्फ़ दो लाईनें गाने के लिए ही आते हैं । जब आशा जी इन पंक्तियों को गा लेती हैं--जीना तो सीखा है मरके, मरना सिखा दो तुम ...तो आते हैं अमित कुमार मुखड़ा गाने के लिए । और एक रिलीफ़ की तरह आती है उनकी आवाज़ । उनके हिस्‍से में गाने का आखि़री अंतरा ही आया है । बस....। पर अच्‍छा लगता है । 'बेचारे से कुछ ख्‍़वाबों की नींद उड़ा दी है । गुलज़ार की कल्‍पनाओं की उड़ान भी बहुत ही आवारगी भरी है । अब बस यही कहना बाक़ी है कि अगर आपके जीवन में इन पंक्तियों को पढ़ने के साथ-साथ पूरे आठ मिनिट का समय हो तो इस गाने को सुनिएगा । थोड़ा-सा लंबा है ये गीत । सुनिए और बताईये क्‍या आपको भी ये उतना ही पसंद है जितना मुझे ।  

Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

 

रोज़ रोज़ आंखों तले एक ही सपना चले

रात भर काजल जले

आंख में जिस तरह ख्‍वाब का दिया जले ।।

जब से तुम्‍हारे नाम की मिसरी होंठ लगाई है

मीठा-सा ग़म है और मीठी-सी तनहाई है

रोज़-रोज़ आंखों तले ।।

छोटी-सी दिल की उलझन है ये सुलझा दो तुम

जीना तो सीखा है मरके, मरना सिखा दो तुम ।।

रोज़ रोज़ आंखों तले ।।

आंखों पर कुछ ऐसे तुमने ज़ुल्‍फ़ गिरा दी है

बेचारे से कुछ ख्‍़वाबों की नींद उड़ा दी है ।।

रोज़ रोज़ आंखों तले ।।

अब sms के ज़रिए पाईये ताज़ा पोस्‍ट की जानकारी

11 टिप्‍पणियां:

ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey January 16, 2008 at 1:50 AM  

यह फिनॉमिना मैने कई जगह देखा है। सपाट बेकार सा चलता है - फिर अचानक उत्कृष्टता का झोंका आता है। फिल्मों में भी ऐसा देखा था पहले (अब देखी नहीं फिल्में)। एक निखलिस्तान सा नजर आता है बंजर फिल्म में। एक गीत या एक सम्वाद। यह गीत भी शायद वैसा है। पूरा मजा तो पढ़ने नहीं सुनने में आता - जो मैं अभी नहीं ले सका।

मीनाक्षी January 16, 2008 at 2:18 AM  

शायद कहीं ज़्यादा पसन्द है. दिन में एक बार तो ज़रूर सुनते हैं. यह गीत हमें सपनो की दुनिया मे ले जाता है.

डॉ. अजीत कुमार January 16, 2008 at 2:42 AM  

गुलज़ार साहब की लेखनी की एक और उम्दा सी प्रस्तुति. उतना ही बेहतर आपके द्वारा प्रस्तुत गाने का introduction.
धन्यवाद.

Kirtish Bhatt, Cartoonist January 16, 2008 at 4:37 AM  

भाई वाह ! क्या बात है. में भी रोज़ इस गाने को सुनता हूँ, बस ये पंक्तियाँ देखीं और और आपके ब्लॉग पर चला आया, बहुत खूब.

जोशिम January 16, 2008 at 4:48 AM  

जोर/ चोर मज़ा आ गया - दरअसल पुराने-पापी गीतों में है - [ जैसे "जब कोई बात बिगड़ जाए" या " झिलमिल सितारों का आँगन होगा" वगैरह ] - manish

Parul January 16, 2008 at 5:49 AM  

aiyo aap kya puuchtey YUNUS JI,,,,pasand hai? ye gaana to bas jab suniye..to ek baar me mun nahi bhartaa...bahut bahut shukriya isey sunvaaney kaa

eSwami January 16, 2008 at 12:06 PM  

अपन को भी पसन्द है ये वाला!

रजनी भार्गव January 16, 2008 at 2:42 PM  

आपके ब्लाग पर अक्सर आती हूँ,अब आदत सी हो रही है.गुलज़ारजी के गीत कभी भी सुन सकती हूँ.शुक्रिया.

vipin-choudhary January 16, 2008 at 6:27 PM  

yunus jee bahut shandar. gulzar kee khubsurat lekhan koo salam.

PD January 16, 2008 at 8:23 PM  

ये तो मेरा बहुत जामाने से मनपसंद गानों में से एक रहा है.. मेरे लैपटॉप पर गुलजार के गानों के २०-२५ गानों का एक संग्रह है, जिसे मैं लगभग हर दिन सुनता हूँ.

डा प्रवीण चोपड़ा January 19, 2008 at 1:07 PM  

युसूफ भाई, मुझे भी यह गीत बेहद पसंद है....लेकिन इस की फिल्म का नाम ध्यान नहीं था। आज सुबह सुबह आप की बलोग के माध्यम से इसे सुन कर दिन की शुरूआत अच्छी हो गई। आप का आइडिया बड़ा क्रिएटिव है। Keep it up and Good luck !!

Post a Comment

परिचय

संगीत का ब्‍लॉग । मुख्‍य-रूप से हिंदी-संगीत । संगीत दिलों को जोड़ता है । संगीत की कोई सरहद नहीं होती ।

Blog Archive

ब्‍लॉगवाणी

www.blogvani.com

  © Blogger templates Psi by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP