Monday, March 3, 2008

चलो फिर से मुस्‍कुराएं- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म, आवाज़ नैयरा नूर की

कुछ अशआर आपको जिंदगी भर याद रहते हैं । कुछ गीत, कुछ कविताएं, कुछ संवाद...इतने इन्‍फेक्‍शस होते हैं कि दिलो-दिमाग़ पर तारी हो जाते हैं । स्‍कूल के दिनों में फै़ज़ को पढ़ना शुरू किया था । फै़ज़ अहमद फ़ैज़ । उनकी क्रांतिकारी शायरी हो या मुहब्‍बतों वाले अशआर...बड़ी ताक़त, बड़ी ऊर्जा दी फ़ैज़ ने हमें । फिर चाहे उनकी नज़्म 'यहां से शहर को देखो' हो या  फिर 'पहली सी मुहब्‍बत' हो या 'बोल के लब आज़ाद हैं तेरे' । faizइंटरनेट पर आवारगी करते हुए मुझे नैयर नूर की गायी फैज़ की ये नज़्म मिली । इसे जितनी बार सुनिए.....मन नहीं भरता । मुझे लगता है कि कई-कई मनहूस और परेशान कर देने वाले दिनों की शुरूआत इसी नज़्म को सुनकर की जानी चाहिए । जब कुछ ना सूझे, जब जिंदगी की पेचीदगियां परेशान करने लगें, जब आप दुनिया से एकदम ऊब जाएं तब भी ये नज़्म आपको हौसला देती है  । तो आईये पढ़ें और सुनें---

कविता कोश में आप फ़ैज़ की अन्‍य कविताएं यहां पढ़ सकते हैं ।

एक शाम मेरे नाम पर मनीष ने फ़ैज़ पर एक पूरी सीरीज़ लिखी है । जिसे आप यहां क्लिक करके देख सकते हैं ।

चलो फिर से मुस्‍कुराएं

चलो फिर से दिल जलाएं

जो गुज़र गयी हैं रातें, उन्‍हें फिर जगाके लाएं

जो बिसर गयी हैं बातें, उन्‍हें याद में बुलाएं

किसी शह-नशीं पे झलकी वो धनक किसी क़बा की ।

किसी रग में कसमसाई वो कसक किसी अदा की

कोई हर्फ़-ए-बेमुरव्‍वत किसी कुंज-ए-लब से फूटा

वो छनक कि शीशा-ए-दिल तहे-बाम फिर से फूटा

ये लगन की और जलन की, ये मिलन की, ना मिलन की

जो सही हैं वारदातें

जो गुज़र गयी हैं रातें, जो बिसर गयी हैं बातें

कोई उनकी धुन बनाएं, कोई उनका गीत गाएं ।। 

कठिन शब्‍दों के अर्थ:

शहनशीं- बैठने की ऊंची जगह । धनक-इंद्रधनुष । कबा-कपड़ा, अंगरखा । हर्फ़-ए-बेमुरव्‍वत--निष्‍ठुर बातें । कुंज-ए-लब--होठों के कोने ।                शीशा-ए-दिल--दिल का शीशा । तह-ए-बाम--अटारी के नीचे ।

ये फ्लैश प्‍लेयर मुझे इंटरनेट आर्काइव पर मिला है । अगर आपके पास adobe flash player है तो ये नज्म आराम से आपके कंप्‍यूटर पर बजेगी । अगर नहीं है तो ये आपको प्‍लेयर इंस्‍टाल करने के लिए कहा जायेगा ।  

अब sms के ज़रिए पाईये ताज़ा पोस्‍ट की जानकारी

5 टिप्‍पणियां:

Pramod Singh March 3, 2008 at 4:25 PM  

मुस्‍करायें? फिर से.. कैसे, महाराज? ओह, नूरे-नूर नैयरा नूर..

ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey March 3, 2008 at 8:50 PM  

एक सामान्य टिप्पणी करूंगा। फैज के प्रति मेरे मन में वह आदर है जो गुरुदेव रवीन्द्र, नजरुल इस्लाम और सुब्रह्मण्य भारती के प्रति है। इन्हे पूरी तरह न समझने पर भी इनकी महानता का अहसास सतत होता है।

अजय यादव March 4, 2008 at 6:08 AM  

चलो फिर से मुस्‍कुराएं चलो फिर से दिल जलाएं
जो गुज़र गयी हैं रातें, उन्‍हें फिर जगाके लाएं

बहुत खूब! नैयारा नूर की मधुर आवाज़ ने इस खूबसूरत नज़्म की दिलकशी को और भी बढ़ा दिया है.


- अजय यादव
http://merekavimitra.blogspot.com/
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://intermittent-thoughts.blogspot.com/

Manish Kumar March 4, 2008 at 6:41 AM  

यूनुस आपकी वज़ह से ये नज्म सुनने को मिली. बहुत बहुत शुक्रिया.
नैयरा नूर मुझे बेहद पसंद हैं। फ़ैज़ की ग़ज़ल हम कि ठहरे अजनबी कितनी मदारातों के बाद.. को नैयरा ने इतने सलीके से गाया है कि आँखें नम हो जाती हैं।

RA March 5, 2008 at 1:24 AM  

उम्दा नज़्म और मीठी आवाज़ । सुंदर।

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