Friday, April 18, 2008

जनम जनम बंजारा हूं बंधू : फिल्‍म राहगीर, हेमंत कुमार की सौंधी आवाज़ ।

रेडियोवाणी पर गुलज़ार के गीतों की चर्चा अकसर ही हुई है । आज भी एक गुलज़ारी गीत की बात की जाए । फिल्‍म 'राहगीर' सन 1969 में आई थी । कलाकार थे-बिस्‍वजीत, संध्‍या राय, शशिकला, इफ्तेख़ार, कन्‍हैयालाल, निरूपा राय और असित सेन । मैंने ये फिल्‍म नहीं देखी । देखने का मौक़ा मिले या नहीं, पता नहीं । लेकिन ये गीत मैं बार-बार सुनता हूं ।

मैं बार-बार अपने इस चिट्ठे और दूसरे चिट्ठे 'तरंग' पर यायावरी करने की hemantapic2अपनी तमन्‍ना की चर्चा हमेशा करता रहता हूं । जो अभी तक पूरी नहीं हो पाई । ख़ैर...आपको नहीं लगता कि हम सब अपने मन के बंजारे हैं । मन की दुनिया में विचरण करते रहते हैं । ये हम बंजारों का गीत है । और हमारे मन के बेहद क़रीब है । पहले हेमंत दा की प्रतिभा को सलाम कीजिए । आप भी उनके मुरीद हैं तो इस पेज पर जाईये जहां से हमने ये तस्‍वीर साभार ली है । ये सुरताल डॉट कॉम की लिंक है । हेमंत दा के बारे में इस पेज पर भरपूर जानकारियां हैं । मेरे एक साथी कहते हैं कि हेमंत कुमार की आवाज़ यूं लगती है जैसे किसी मंदिर में धूप-बत्‍ती की खुश्‍बू आ रही हो । जैसे कोई पुजारी तन्‍मयता से गा रहा हो । जैसे रात के सन्‍नाटे में अचानक वीणा की तान सुनाई दे रही हो ।

कुछ इसी तरह का अंदाज़ है हेमंत दा का । हेमंत दा और गुलज़ार की जुगलबंदी कई गानों में हुई है । ख़ासतौर पर इस गाने की बात करते हुए मुझे सुकून मिलता है । ज्‍यादा कुछ नहीं कहना । सुनिए और बताईये ।

 जनम से बंजारा हूं बंधु जनम-जनम बंजारा

कहीं कोई घर ना घाट ना अंगनारा ।।

जहां कहीं ठहर गया दिल, हमने डाले डेरे

रात कहीं नमकीन मिली तो मीठे सांझ-सवेरे

सब नगरी छोड़ी, साहिल छोड़ा लिया मंझधारा

बंधु रे........नगरी छोड़ी साहिल छोड़ा लिया मंझधारा

बंधु कहीं कोई घर ना घाट ना अंगनारा ।।

सोच ने जब करवट बदली शौक़ ने पर फैलाए

....के तिनके सारे डाल से उड़ाए

सब रिश्‍ते तोड़े नाते तोड़े छोड़ा कुल-किनारा

बंधु रे.....कहीं कोई घर ना घाट ना अंगनारा ।

जनम से बंजारा ।।

अब sms के ज़रिए पाईये ताज़ा पोस्‍ट की जानकारी

14 टिप्‍पणियां:

prashantvitmca April 18, 2008 at 7:24 PM  

आफिस में आनलाईन गाने नहीं सुन सकता हूं.. घर जाकर सुनुंगा.. वैसे ऐसा लग रहा है जैसे मैंने यह गीत नहीं सुना है.. :)

PD April 18, 2008 at 7:27 PM  

prashantvitmca वाला कमेंट मैंने डाला था.. पता नहीं क्यों और कैसे ये मेरा दूसरा इ-मेल ले लिया जो याहू का है..

Ashok Pande April 18, 2008 at 7:40 PM  

क्या बात है य़ूनुस भाई. हेमन्त दा के सबसे महान गीतों में एक है यह. बहु बहुत धन्यवाद!

rakhshanda April 18, 2008 at 7:44 PM  

बहुत खूबसूरत है...धन्यवाद

सुशील कुमार,  April 18, 2008 at 7:54 PM  

भाईया ये इस गाने पर click करने के बाद भी हम यह गाना नही सुन पा रहे है adobe flash player install hai मैने कई लोगों को लिखा पर जवाब नही मिला. क्या आप जवाब देगे.

ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey April 18, 2008 at 8:41 PM  

बहुत अच्छा लगा। बनजारियत की ही तो तलाश है। खोल से बाहर निकलना है।
चुनकर दिया गीत - मानो हमारे लिये था।

kanchan April 18, 2008 at 8:44 PM  

maja aa gaya Yunus Ji...!

अभिषेक ओझा April 18, 2008 at 9:07 PM  

हेमंत दा की बात ही कुछ और है... मैं सब से ज्यादा वैसे तो किशोर दा को सुनता हूँ पर हेमत दा के गानों पूरा कलेक्सन रखा है... और जिस दिन बज गया फिर कई दिनों तक बजता ही रहता है...
वैसे तो कई गीत है पर अगर बिना कुछ सोचे ५-६ गाने हेमंत दा के लिखने बैठ जाऊं तो ...
'है अपना दिल तो आवारा होता'
'या दिल की सुनो दुनिया वालो',
'जाने वो कैसे लोग थे',
'न तुम हमें जानो'
'नींद न मुझको आए'
'सुन जा दिल की दास्ताँ'
'तरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है की मर जाएँ '
'तुम पुकार लो'
'याद किया दिल ने कहाँ होता तुम'
'ये नयन डरे-डरे'
और हाँ जनम जनम का बंजारा भी...


धन्यवाद.
आज तो सच में मज़ा आ गया ये गाना सुनकर... अब अगले कुछ दिनों तक हेमंत दा को सुनता हूँ.

दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi April 18, 2008 at 9:30 PM  

सच्चा और मधुर गीत, पर इस में भी कड़वा स्वाद लगा होगा अनेक को। हर कोई बंजारा ही है। बस एक काल खंड के लिए वह समझ बैठता है कि वह नहीं है और चिपक जाता है अपने ही बनाए गए घरोंदों से।

Mala Telang April 18, 2008 at 9:38 PM  

वाह मजा आ गया हेमंतदा को सुन कर ,बहुत दिनों बाद सुना ये गीत ,प्लीज आपसे एक फरमाइश करती हूँ .... मुझे ये गीत बहुत अच्छा लगता है... ये नयन डरे डरे ... प्लीज सुनवायेंगे?

इरफ़ान April 18, 2008 at 11:31 PM  

Bhai saahab aap kab tak meree pasand ko apanee pasand kah kar sabkee aankhon mein dhool jhokte raheinge? Ab bas bhee keejiye!

जोशिम April 18, 2008 at 11:48 PM  

आप सब को गाना अच्छा लग रहा है - हम तो पिछले बीस साल से हर तीन चार साल नियम से घरबदर कर रहे हैं! सच में ! और यूनुस मियाँ हेमंत दा के ही बोले शब्दों में - "कातिल तुम्हें पुकारूँ या जाने वफ़ा कहूं, हैरत में पड़ गया हूँ में तुमको क्या कहूं" - धूपबत्ती की उपमा नायाब है सटीक है - इस पर एक और सलाम - मनीष [ पुनश्च - कल ई-मेल देख लेना] [irfaan saahab phir aap "nayan dare dare" laga den]

Parul April 19, 2008 at 12:01 AM  

बंजारा गीत,बैरागी आवाज़/ बहुत पसंदीदा गीत सुनवाया आज आपने। धन्यवाद

Manish Kumar April 19, 2008 at 6:43 AM  

मन मोहने वाला गीत लगा ये। सुनवाने का धन्यवाद !

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