Friday, April 4, 2008

'अच्‍छी बात कहो'-मेहदी हसन के बहाने स्‍कूल के ज़माने की विकल याद ।।

मेहदी हसन के चाहने वालों की तादाद कम नहीं है । हम मेहदी हसन के बचपन से शैदाई रहे हैं । याद आता है वो ज़माना जब हम मध्‍यप्रदेश के शहर सागर में थे । स्‍कूल की पढ़ाई के आखिरी दो साल थे । उसके बाद इंजीनियरिंग का मां बाप का सपना पूरा करने की जिम्‍मेदारी थी । उन दिनों में जाने कब और कैसे रेडियो का शौक़ लग गया था । फिलिप्‍स का एक तीन बैन्‍ड वाला रेडियो हमारी स्‍टडी-टेबल पर विराजमान रहता । विज्ञान के विद्यार्थी थे, लगातार किताबों में नज़रें गड़ी रहतीं और रेडियो चलता रहता । पिताजी कहते कि ये कौन सी पढ़ाई है जो रेडियो के साथ हुआ करती है । पर अपन कहां सुधरने वाले थे ।

उन दिनों में रेडियो पर भटकना आज की इंटरनेटी यायावरी की तरह था । वाक़ई । और एक शाम तकरीबन पांच बजे के आसपास रेडियो की हमारी भटकती सुई शॉर्टवेव पर जा टिकी उस जगह जहां मेहदी हसन साहब की आवाज़ सुनाई दे रही थी । शायद रेडियो पाकिस्‍तान की विदेश सेवा के कार्यक्रम थे वो ।

.... फिर तो हर शाम बस यही तरंगें गूंजा करतीं--'गुलों में रंग भरे, बादए नौबहार चले, चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले' । राजकमल पेपरबैक्स की उर्दू शायरी वाली देवनागरी पुस्तकों में नीचे दिये गये मायने हमारी उर्दू को सुधारा करते ।

जो लहरदार प्रसारण में सुनाई देते थे । शॉर्टवेव का प्रसारण लहरदार होता है अकसर । रेडियो के शौकीन इस बात की तस्‍दीक करेंगे । बहरहाल मेहदी हसन को सुनने का एक अड्डा मिल गया । वहां मेहदी हसन के फिल्‍मी गीत बजाए जाते जो मध्‍यप्रदेश के उस अख्‍खड़ उनींदे और रूके रूके से शहर में कहीं और मिल ही नहीं सकते थे । ये गीत बार बार बजता जिसके बोल थे--'मुरझाये हुए फूलों की क़सम इस देश में फिर ना आयेंगे । मालिक ने बुलाया भी हमको, हम राहों में खो जाएंगे' । उस दौर के बाद ये गीत आज तक सुनने को नहीं मिला । अगर किसी के पास उपलब्‍ध हो तो हमारी विकलता को कम कीजिए भाई ।

ख़ैर उन्‍हीं दिनों हमने अपने जेबख़र्च के पैसों को जमा कर करके कैसेट खरीदने शुरू किये थे । अकसर भोपाला आना जाना लगा रहता था । एक दिन भोपाल में लॉयल बुक डिपो की ख़ाक छान रहे थे कि नज़दीक कहीं किसी कैसेट शॉप में घुस गये । और आधे पौने घंटे में एक कैसेट हाथ लगा । जिसमें मेहदी हसन के फिल्‍मी गीत थे । पाकिस्‍तानी फिल्‍मों के गीत । ओह, मन मांगी मुराद पूरी हुई । वरना होता ये था कि या तो पाकिस्‍तानी रेडियो स्‍टेशनों का सहारा था या फिर ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस का ग़ज़लों का प्रोग्राम । वो तो भला हो सहपाठी श्रवण हलवे का । जिसने पहली बार मुझे मेहदी हसन का एक कैसेट उधार दिया और शायद हमने उसकी कॉपी करवा ली । फिर तो हर शाम बस यही तरंगें गूंजा करतीं--'गुलों में रंग भरे, बादए नौबहार चले, चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले' । राजकमल पेपरबैक्‍स की उर्दू शायरी वाली देवनागरी पुस्‍तकों में नीचे दिये गये मायने हमारी उर्दू को सुधारा करते । बहुत ही भारी भरकम उर्दू शब्‍दों के अर्थ पूछे जाते । ग़ज़लों को समझने की कोशिश की जाती ।

'नक्‍श फरियादी है किसकी शोख़ीए तहरीर का ।

काग़ज़ी है पैरहन हर पैकरे तस्‍वीर का ।'

बाप रे । इससे तो अच्‍छा था कि ट्रिग्‍नॉमेट्री के कठिन समीकरण समझ लिये जाएं या फिर न्‍यूक्लियर फिजिक्‍स घोंट ली जाए । पैकरे तस्‍वीर, तहरीर, पैरहन । सबके अर्थ खोजते और जोड़ते तो बात नहीं बनती । उन दिनों सबसे ज्‍यादा दिक्‍कत ग़ालिब को समझने में ही हुई । ख़ैर बात ज़रा भटक गयी । हां तो हमें मेहदी हसन की आवाज़ से मुहब्‍बत हो गयी थी । उनके आगे उस दौर में छाए हुए पंकज उधास भी कुंए से पानी खींचते नज़र आते थे । मतलब ये कि हमारे लिए ग़ज़ल की दुनिया मेहदी हसन से शुरू होकर उन्‍हीं पर ख़त्‍म हो जाती थी । ऐसे में उनके पाकिस्‍तानी फिल्‍मों के गाने हमारे लिए एक नियामत की तरह थे । आज मैं आपको उसी दौर में पहली बार सुना एक गीत सुनवा रहा हूं रेडियोवाणी के मंच से । ये गीत नैतिक शिक्षा के पाठ की तरह है । यूं लगता है मानो कोई बूढ बुजुर्ग अपने चांदी जैसे बालों और फकीराना तबियत की धुन में गाये जा रहा है और शरारती बच्‍चों की टोली अचानक विस्‍मय से उसे सुन रही है । मैंने ज्‍यादा मशक्‍कत नहीं की ये जानने की कि इसे लिखा किसने है । पर ज़रा सुनिए तो इस गाने को और फिर कहिए कि कैसा जादू है इस गाने में । मेहदी हसन के शैदाई अपने हाथ उठाएं । हमें गिनती करनी है । ये रहे इस गाने के बोल:

अच्‍छी बात कहो अच्‍छी बात सुनो, अच्‍छाई करो, ऐसे जियो

चाहे ये दुनिया बुराई करे, तुम ना बुराई करो ।

अच्‍छी बात कहो ।।

दुख जो औरों के लेते हैं, मरके भी जिंदा रहते हैं ।

आ नहीं सकतीं उस पे बलाएं, लेता है जो सबकी दुआएं

अपने हों या बेगाने हों सबसे भलाई करो ।।

अच्‍छी बात कहो ।।

चीज़ बुरी होती है लड़ाई, होता है अंजाम तबाही

प्‍यार से तुम सबको अपना लो, दुश्‍मन को भी दोस्‍त बना लो

भटके हुए इंसानों की तुम राहनुमाई करो ।

अच्‍छी बात कहो ।। 

अब sms के ज़रिए पाईये ताज़ा पोस्‍ट की जानकारी

16 टिप्‍पणियां:

sanjay patel April 4, 2008 at 5:10 PM  

भाईजान...मेहंदी हसन के अच्छे स्वास्थ्य की कामना के साथ ये बात आपसे बाँटना चाहूँगा कि एकदम पहली बार उस्तादजी को मैने गर्मियों की छुट्टियों में एक रात अपनी छत पर बरामद किया.मज़ाक कर रहा हूँ...हमारा फ़िलिप्स बहादुर ट्रांज़िस्टर भी बड़ा नख़रे करता था . बीबीसी लगाना चाहों तो न जाने क्या पकड़ लेता था. सुईं घुमा ही रहा था कि भरावदार हारमोनियम का पीस और उस पर तबले की करामाती तिहाईयाँ....सब्र किया तो ग़ज़ल का अंतरा ( नया मतला) सुनाई दिया...
अभी तो सुबहा के माथे का रंगा काला है
ज़रा नक़ाब उठाओ बड़ा अंधेरा है

फ़िर...स्थायी...
चराग़े तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है
क्या करिश्माई आवाज़...मेरा किशोर मन रोमांचित हो गया...मैने सोचा सुनूं तो सही कहाँ से प्रसारित तो रही है ये रचना...बाद में एनाउंसर ने बताया ये प्रसारण आप रेडियो डॉयचे वेले (जर्मनी) से सुन रहे हैं....उसके बाद कभी ये स्टेशन पकड़ में नहीं आया...लेकिन मालवा की उस रात ने मुझे ज़िन्दगी भर के लिये मेहंदी हसन साहब का मुरीद बना डाला....यादें कुछ और भी हैं उनसे प्रत्यक्ष मुलाक़ात और राजस्थानी में बतियाने की जो फ़िर और कभी (ग़ज़ल के मिसरों में कोई गड़बड़ हो तो माफ़ करें...मामला तक़रीबन तीस साल पुराना है जब ख़ाकसार की उम्र थी सत्रह बरस...युनूस भाई उस रात में लौटाने का शुक्रिया वरना आज और आने वाले कल की उत्तेजना में बीता तो बीतता ही जा रहा है)

अभिषेक ओझा April 4, 2008 at 5:53 PM  

सुबह सुबह आपकी अच्छी पोस्ट पढने को मिल गई... शुक्रिया!
कभी गुलाम अली साहब के बारे में भी लिखिए... और हाँ ११ अप्रिल को कुन्दन लाल सहगल के जन्म दिन पर क्या लिख रहे हैं? इंतज़ार रहेगा.

annapurna April 4, 2008 at 6:45 PM  

यहाँ आकाशवाणी हैदराबाद से सुगम संगीत के कार्यक्रम में और रोज़ रात में एक घण्टे के उर्दू कार्यक्रम नयरंग में मेहदी हसन और ग़ुलाम अलि की ग़ज़ले बहुत सुनवाई जाती है।

kanchan April 4, 2008 at 6:49 PM  

हम हाथ खड़े किये हैं यूनुस जी....! गिन लीजिये...!

आज जो गीत सुनाया वो पहले नही सुना था...बहुत सुंदर गीत

जोशिम April 4, 2008 at 9:04 PM  

पिछले हफ्ते को आज सुना - जुम्मे की छुट्टी आज - और गए हफ्ते रात देर हो रही थी - और बिना सुने पढ़ना तुम्हारे यहाँ मज़ा नहीं देता - बहुत ही अच्छी बात रही यह- पहले नहीं सुनी - मिसरी जैसे वचन रहे - नैतिक शिक्षा भी अच्छी याद दिलाई जैसे बाल भारती की दिलाते रहते हो - यहाँ एक दोस्त हैं उनके पास शायद मेंहदी हसन के फिल्मी गाने भी हों - जैसे भी हों इ-मेल कर दूँगा - अपलोड वगैरह नहीं आता -rgds - manish

Parul April 5, 2008 at 12:06 AM  

hamare yaha mehdi hasan sahab hamarey papa ke kabzey me rahtey they.....matlab unkey records...badi mushkil se ijaazat milti thii unhey khud se bajaney ki....ye geet to pehli baar sunaa...vaisey hum dono haanth khadey kiye hain YUNUS ji

दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi April 5, 2008 at 2:17 AM  

यूनुस भाई, आप तो हीरे ही हीरे दिए जा रहे हैं। इस गीत के गीतकार का नाम जानने की इच्छा है।

yunus April 5, 2008 at 2:43 AM  

शुक्रिया मित्रो हमें मेहदी हसन के शैदाईयों की तादाद का अंदाज़ा लग गया है । सभी मित्रों का शुक्रिया । मनीष भाई अपलोडिंग सीखना हो तो मैं तत्‍‍पर हूं, गीतों का इंतज़ार रहेगा । दिनेश जी शुक्रिया...गीतकार का नाम पता चलते ही बताता हूं ।

v9y April 5, 2008 at 3:56 AM  

एक गिनती मेरी भी कर लीजिए. और जब आया हूँ तो एक पर्सनल टिप भी बताता जाऊँ - कभी खाली दोपहर में दही के साथ बाजरे की रोटी और लहसुन की चटनी खाते हुए मेहदी साहब को सुनिए. मज़ा आ जाएगा.

सागर नाहर April 5, 2008 at 4:22 AM  

भाई साहब यह तो मेरे साथ अन्याय हो गया.. हसन साहब की बात हो रही है और मुझे पता ही नहीं चला। हसन साहब के पंखो में हमें भी शुमार करें।
आपने मुझे इस पोस्ट में कुछ लाइनें पढ़वा कर एक बार फिर से बेकल कर दिया। एक गज़ल के शब्द आपने लिखे हैं नक्श फ़रियादी है किसकी... यह गज़ल तलत महमूद साहब ने भी गाई है शायद खैय्याम साहब के संगीत निर्देशन में। बरसों पहले सुनी थी, आपने आज फिर याद दिला दी। अब पता नहीं फिर कब और कहां सुनने का मौला मिलेगा। लगता है खालिद साहब से ही मांगनी होगी।
इसी तरह इस बज़्म को आबाद करते रहें, यही दुआ है।

yunus April 5, 2008 at 5:09 AM  

सागर भाई नक्‍श फरियादी तलत साहब ने गाया है । मैं इसे आपको उपलब्‍ध करवा सकता हूं । ज़रा थोड़ा समय दीजिए ।

डॉ. अजीत कुमार April 5, 2008 at 5:42 AM  

हम तो ग़ुलाम अली, जगजीत साहब, पंकज और मनहर उधास साहब, तलत अज़ीज़ के ही मुरीद रहे हैं. मेंहदी हसन को भी आज सुन लेता पर esnips लोड ही नहीं हो रहा. :(

Dr Prabhat Tandon April 5, 2008 at 3:01 PM  

यूनूस भाई , मै भी मेहंदी हसन जी के प्रशंसकों मे से हूँ , जगजीत सिंह , मेहदीं हसन कब स्कूल जाने के दिनों से दिल मे छा गये , मालूम ही नही पडा । यह भी देखें
सरहद के पार- 'मेहंदी हसन'

मुनीश ( munish ) April 6, 2008 at 6:57 AM  

...ditto..ditto..!
u r doing solid work yunus!

ganand April 6, 2008 at 7:20 AM  

short wave pe radio tune karne ka apna hin kala hota hai....aapne short wave ki baat karke bahut sari purani yadein taja kar di....
waise kuch gane Mehadi Hasan sahab ke aap
yahan sun sakte hain aur download bhi kar sakte hain bilkul muft!!!

Guneshwar.

Manish Kumar April 6, 2008 at 8:30 AM  

वाह भाई महदी साहब का ये अलग ही तरह का गीत लगा। सुनवाने का शुक्रिया।

Post a Comment

परिचय

संगीत का ब्‍लॉग । मुख्‍य-रूप से हिंदी-संगीत । संगीत दिलों को जोड़ता है । संगीत की कोई सरहद नहीं होती ।

Blog Archive

ब्‍लॉगवाणी

www.blogvani.com

  © Blogger templates Psi by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP