उस्ताद अली अकबर ख़ां साहब के सत्यजीत राय से जुड़े अनुभव
रेडियोवाणी पर हमने महत्त्वपूर्ण अखबारों से संगीत से जुड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी साभार प्रस्तुत करने की परंपरा शुरू की है । इस परंपरा को आगे भी निभाया जायेगा । टाइम्स ऑफ इंडिया के दिनांक दो मई 2008 के अंक में उस्ताद विलायत खां साहब से रंजन दास गुप्ता ने सत्यजीत राय के बारे में छोटी सी बातचीत की है । टाइम्स में छपे इसी साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत किया जा रहा है । इस आलेख की ख़बर जयपुर से राजेंद्र जी ने भेजी । दो मई को सत्यजीत राय का 87 वां जन्मदिवस था । तब इस बातचीत को नहीं दे सका । देर से ही सही हम सत्यजीत राय को याद तो कर रहे हैं ।
सत्यजीत राय ऐसे अकेले फिल्म निर्देशक हैं जिन्होंने पंडित रविशंकर, उस्ताद अली अकबर खां और उस्ताद विलायत खां साहब तीनों के साथ काम किया । उस्तार अली अकबर खां ने 1960 में फिल्म 'देवी' के संगीत पर काम किया था, अमरीका से दिये गये इस दुर्लभ इंटरव्यू में ख़ां साहब सत्यजीत रे के साथ काम करते हुए मिले अनुभवों का ब्यौरा दे रहे हैं ।
आपको फिल्म देवी में पार्श्वसंगीत देने का मौक़ा कैसे मिला था
सत्यजीत राय ने सीधे मुझसे संपर्क किया था और वो मेरे साथ काम करने को व्यग्र थे । उन्हें लगता था कि 'देवी' के साथ केवल मैं ही न्याय कर सकता हूं । उन्होंने मुझे कई संगीत-समारोहों में सरोद बजाते सुना था और 1952 में आई फिल्म 'आंधियां' में मेरे संगीत को भी सुना था । चूंकि सत्यजीत एक संवेदनशील और प्रतिभाशाली निर्देशक थे इसलिए मैं उन्हें मना नहीं कर सका ।
फिल्म 'देवी' पर काम करते हुए सत्यजीत राय की कार्यशैली कैसी थी
उन्हें साफ तौर पर पता था कि उन्हें मुझसे क्या चाहिए । उन्होंने मेरे साथ अनगिनत रिहर्सलें कीं । और कुछेक धुनों को चुना । ये वो धुनें थीं जो फिल्म 'देवी' के मूड के एकदम अनुकूल बैठती थीं । लेकिन कुछ ऐसे मौक़े भी आए जब वो एकदम अड़ गये थे । उन्होंने मुझे पूरी रचनात्मक आजा़दी नहीं दी थी । इससे मुझे धक्का लगा था । क्योंकि मेरी रचनात्मकता पर एक तरह से अंकुश जैसा लग गया था ।
क्या 'देवी' के संगीत निर्देशन के दौरान कभी आप दोनों के बीच कोई झगड़ा हुआ
मैं दूसरे रचनात्मक लोगों के साथ झगड़ा नहीं करता । दरअसल मेरी कार्यशैली उनके साथ जमी नहीं । मुझे लगा कि सत्यजीत राय शास्त्रीय संगीत के क़द्रदान नहीं थे हालांकि उनमें संगीत की गहरी समझ थी । शायद उन्होंने मुझे इसलिए रोका क्योंकि उन्हें लगा होगा कि जरूरत से ज्यादा संगीत उनकी फिल्म के प्रवाह को खत्म कर देगा । मैंने इस बात को समझा लेकिन देवी के संगीत को लेकर मैं बहुत खुश नहीं था ।
आपको क्या लगता है कि पंडित रविशंकर और उस्ताद विलायत खां साहब के साथ कैसे काम किया होगा सत्यजीत राय ने
सबसे ज्यादा उनकी पंडित रविशंकर से ही जमी । अपू त्रयी और परश पाथर में उन्होंने शानदार संगीत दिया है । रविशंकर सत्यजीत राय की जरूरतों और उनके मूड को अच्छी तरह से समझते थे । बाकी किसी भी फिल्म में रविशंकर ने इतना अच्छा संगीत नहीं दिया । विलायत खां साहब ने फिल्म जलसाघर में संगीत दिया था । जो बहुत ही उत्कृष्ट था । लेकिन मुझे लगता है कि सत्यजीत राय ने उन्हें भी अपना सर्वश्रेष्ठ संगीत देने से रोक दिया था
सत्यजीत राय, चेतन आनंद और तपन सिन्हा की कार्यशैली में फर्क बताईये
सत्यजीत राय इन तीनों में सबसे ज्यादा विविधरंगी थे । बाद में उन्होंने अपनी फिल्मों का संगीत स्वयं भी दिया । और कुछ अविस्मरणीय धुनें बनाईं, चेतन आनंद दिल से एक कवि थे । और अपने संगीतकार को पूरी आजादी देते थे । तपन सिन्हा का सौंदर्यबोध बड़ा अच्छा है । वे रवींद्रनाथ ठाकुर के संगीत विद्यालय से आते हैं । और अपनी फिल्म खुदीतो पशन में उन्होंने मुझसे उसी शैली का काम करवाया ।
बातचीत टाइम्स ऑफ इंडिया के दो मई के संस्करण में छपे इंटरव्यू का अनुवाद है ।
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7 टिप्पणियां:
खुदीतो पशन - Tapan Sinh's Film was named
" क्षुधितो पाषाण " मतलब
प्यासी चट्टान / या प्यासा पत्थर -
nice write up + a good interview
उस्तार अली अकबर खां ने, 'आंधियां' में संगीत दिया था -
आँधिया " फिल्म के गाने मेरे पापा जी पँडित नरेन्द्र शर्मा ने ही लिखे --जिसका एक गीत है लता दीदी का गाया हुआ -
" है कहीँ पर शादमामी और कहीँ नाशादियाँ आतीँ रहतीँ हैँ जीवन मेँ सदा यूँ सुख दुख की आँधियाँ "
-- लावण्या
ओहोहोहोहोहो! लावण्या जी, आप महान गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्माजी की बेटी हैं !!!!! मुझ नादाँ को इसका इल्म ही न था. अरसा पहले स्वर्गीय पंडित प्रदीपजी से उनके ही विले-पार्ले स्थित बंगले में उनके ही मुंह से सुना था कि नरेन्द्र जी महाप्राण निरालाजी के साथ गीत पढ़ा करते थे. और निराला जी उनके गीतों से ख़ुश होते थे. फिर भी आपका ब्लॉग मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी वजह से पढ़ना चाहूंगा.
और इस जानकारी के लिए मैं यूनुस का शुक्रगुजार रहूगा. यह भी अनजाने में बस कमाल करता रहता है.
इंटरव्यू कुछ ज़्यादा मुख्तसर नहीं है यूनुस?
विजय भाई जी,
नमस्ते -- जी हाँ मैँ उन्हीँ गुणी , सँत ह्र्दय कवि की बेटी हूँ !
महाप्राण ऋषितुल्य निराला जी की स्मृति को शत शत प्रणाम -
पँडित प्रदीप जी भी बिरले कवि थे !उन्हेँ भी शत शत प्रणाम -
आप से मिलकर प्रसन्नता हुई -
सादर, स स्नेह्,
-लावण्या
आपका अनूदित आलेख अली अकबर खान साहब की बातचीत ,सत्यजित रे पर पढ़कर अच्छा लगा |
फ़िल्म जलसाघर, कुछ वर्ष पहले ही देखने का अवसर मिला था |
सत्यजित रे सचमुच बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे | उनकी लिखी किताब प्रोफेसर शोंकू के कारनामें (अंग्रेज़ी में अनुवाद ) पढ़कर आनंद आया था एवं ApuTrilogy जैसी सशक्त कृतियाँ भी बेमिसाल है|
अपने फील्ड से इतर बहुत बड़ी बड़ी प्रतिभाओं से परिचय हुआ। आपको धन्यवाद।
सत्यजित रे के बारे में बहुत कुछ जानना चाहिये - ऐसा मन हो रहा है।
सत्यजित रे ने 1961 में 'तीन कन्या' फ़िल्म से ख़ुद ही अपनी फिल्मों का संगीत कंपोज करना शुरू कर दिया था. उन्हीं के शब्दों में " मैं अब प्रोफेशनल कम्पोजरों के साथ काम नहीं करता इसका कारण यह है कि मुझे ख़ुद को संगीत के खूब आईडिया आने लगे हैं और अधिकतर प्रोफेशनल कम्पोकर यह पसंद नहीं करते कि मैं उन्हें जरूरत से ज्यादा गाईड किया करूँ.
फ़िल्म संगीत के बारे में रे का मत था कि "यदि मैं ही दर्शक होता तो मैं फ़िल्म में संगीत का उपयोग नहीं करता...मुझे हमेशा लगता रहा है कि संगीत कोई बहरी तत्त्व है और (एक फिल्मकार को) उसके बिना अपना काम करना चाहिए, उसके बिना अपने को अभिव्यक्त करना चाहिए.
फ़िल्म में संगीत के अवदान पर रे यह महत्वपूर्ण टिपण्णी अली अकबर खान साहब की टिपण्णी के परिपेक्ष्य में समझी जा सकती है. मगर खान साहब का यह कहना कि रे शास्त्रीय संगीत के कद्रदान नहीं थे जरूर चौकाने वाली बात है.
अली अकबर साहब का सरोदवादन अभी कुछ वर्ष पहले कोलकाता में हुए एक शानदार कार्यक्रम में सुना था . उन्हें सहारा देकर लाया गया था . पर एक बार जब उन्होंने सरोद छेड़ दिया तो उम्र का कोई प्रभाव नहीं वहां नहीं था और लोग घंटों मंत्रमुग्ध बैठे रहे. उन्होंने एक कम्पोज़ीशन बजाने के पहले कहा कि यह कम्पोजीशन बाबा को -- पिता बाबा अलाउद्दीन खां को -- बहुत प्रिय थी .
वे कैलीफ़ोर्निया से आए थे . अब शायद वहीं रहते हैं .
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