Tuesday, August 5, 2008

शाम ढले जमना किनारे---फिल्‍म पुष्‍पांजली का एक अनमोल गाना

                                     radha krishna

हो सकता है कि मैंने पहले भी जिक्र किया हो कि अंताक्षरी को मैं पुराने गानों को दोहराने की दृष्टि से बड़ा ही महत्‍त्‍वपूर्ण मानता हूं । फरवरी के महीने में जैसलमेर और जोधपुर की यात्रा में चूंकि हमने अपना लगभग सारा सफर सड़क मार्ग से ही पूरा किया था इसलिए लंबे लंबे प्रवास में अंताक्षरी एक बड़ा ही जीवंत माध्‍यम बन गया था सफ़र को काटने और यादगार बनाने का । ऐसा हमेशा ही होता है, जब आप समूह में यात्रा पर निकलें और समूह में एक खास किस्‍म की ट्यूनिंग हो तो हिचक निकल जाती है और सबके सब अंताक्षरी में जमकर हिस्‍सा लेते हैं ।

ऐसी अंताक्षरियों में मन पर जमी धूल की परतें हट जाती हैं और कई ऐसे गाने याद आते हैं जो आश्‍चर्यजनक रूप से मन की कंदराओं में कहीं भीतर छिप जाते हैं । और ऐसा ही हुआ था फरवरी की हमारी यात्रा में । अंताक्षरी में बेईमानी और मज़े बहुत होते हैं । जब भी हम 'श' पर आकर अटकते तो दोनों समूह के लोग पूरी एकता के साथ यही भजन गुनगुनाते लगते । 'शाम ढले जमना किनारे, आजा राधे आजा तोहे श्‍याम पुकारे' । किसी ज़माने से मुझे ये भजन बड़ा प्रिय रहा है । पर याद नहीं आता कि पिछले कई कई सालों में एक बार भी इसकी याद आई हो ।

राजस्‍थान के सफर में आश्‍चर्यजनक रूप से हमारे एक साथी को ये गाना ना केवल बहुत सारा याद था बल्कि वो इसे खूब मजे लेकर गाते भी थे । और हम सब मिलकर कोरस का काम करते थे । पिछले कई दिनों से घर पर हर सबेरे ये भजन सुना जा रहा था और रेडियोवाणी पर इसे आपके साथ साझा करने का मुद्दा लगातार टलता जा रहा था । तो आईये इस भजन की तरंगों में खो जाएं ।

लक्ष्‍मीकांत प्‍यारेलाल की तर्ज़ । आनंद बख्‍शी का गीत । मन्‍ना दा और लता जी की आवाज़ें । सन 1970 में आई फिल्‍म 'पुष्‍पांजली' का गीत । आपको याद दिला दूं कि इस फिल्‍म में मुकेश का वो कालजयी गाना भी था--'दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहां' ।

बहरहाल । इस गाने को मांझी गीत की शक्‍ल दी गयी है । इसीलिए रिदम और बांसुरी को एकदम मांझी गीतों की शैली वाला रखा गया है । आरंभ में जो बांसुरी सुनाई देती है वो मुरली बजैया श्रीकृष्‍ण के इस गाने को सही आधार देती है । मन्‍ना दा इस देश के महानतम गायकों में से एक रहे हैं पर मुझे अफ़सोस होता है कि उनका फिल्‍म-संगीत में सही इस्‍तेमाल नहीं किया गया है । इस गाने के अंतरे का संगीत चप्‍पू के चलने और नौका के आगे बढ़ने का इफेक्‍ट देता है । गाने में वो लालित्‍य है कि आपको पता ही नहीं चलता और ये आपके होंठों पर सज जाता है । खा़सतौर पर मन्‍नादा का अपनी खास अदा में 'किना.....रे' या 'इशा....रे' जैसा खींचकर गाना ।

छह मिनिट चौबीस सेकेन्‍ड के इस गाने को आप तभी सुनिए जब आपके जीवन में इतनी देर चैन से रूकने की गुंजाईश हो । यकीन मानिए ये गीत आपके दिन को एक दिव्‍य गंध से आलोकित कर देगा । इस गाने के आखिरी अंतरे से पहले जो मैं‍डोलिन बजा है उस पर जरूर ध्‍यान दीजियेगा ।

शाम ढले जमना किनारे, किनारे

आजा राधे आजा तोहे श्‍याम पुकारे ।।

कभी रूके कभी चले राधा चोरी चोरी

पिया कहे आ, जिया कहे, नहीं गोरी

शाम ढले ।।

राधा शर्माए मनवा घबराए

पनिया भरने वो, जाये, ना जाये

खड़ी सोचे बृजबाला बृज में है होरी

कान्‍हा रंग देंगे मोहे, हाय बरजोरी

लोग करेंगे ये इशारे, इशारे

आजा राधे आजा तुझे श्‍याम पुकारे ।।

शाम ढले ।।

कोई कहे श्‍याम से, ना बांसुरी बजाए

चैन‍ किसी का हो, चितचोर ना चुराए

डगमग डोले जिया की नैया

चले जब पुरवैया, छेड़े बंसी कन्‍हैया 

जादू भरे नैना डाले नैनवा की डोरी

सोये सारा जग जागे, एक चकोरी

रात कटे गिन गिन के तारे, तारे

आजा राधे आजा तुझे श्‍याम पुकारे

शाम ढले ।।

पनघट पे सखियां करती हैं बतियां

मोहन से लागी, राधा की अंखियां

जो भी मिले ये ही पूछे, सुन ओ किशोरी

गयी कहां निंदिया रे, बिंदिया तोरी

राम कसम छेड़ेंगे सारे, सारे

आजा राधे आजा तुझे श्‍याम पुकारे

शाम ढले ।।

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29 टिप्‍पणियां:

रंजना [रंजू भाटिया] August 5, 2008 at 4:38 PM  

वाह मजा आ गया बरसती सुबह की बेला और राधा कृष्ण का गीत .शुक्रिया

Neeraj Rohilla August 5, 2008 at 5:54 PM  

वाह युनुस भाई,
थोडा इन्तजार कराया पर क्या पोस्ट लेकर आये हैं । मज़ा आ गया कसम से ।

मन्ना डे की तरह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को भी उनके हुनर और मेहनत के बराबर पहचान कम मिली । बडा कष्ट होता है जब बहुत से लोग उनके मधुर गीतों को भूलकर उनको बैंड बाजे वाले संगीत निर्देशक कह देते हैं ।

मन्ना डे के तो कहने ही क्या ।

Vinod Kumar Purohit August 5, 2008 at 6:03 PM  

Very nice song!/Bhajan. Do post atleast one song of this type everyday. the best effort. Thanks for presenting this song in the rainy season.

yunus August 5, 2008 at 6:13 PM  

विनोद भाई रोज़ पोस्‍ट लिखना ज़रा मुश्किल काम है । मैं चाहता हूं कि सुनने वालों को गाना आत्‍मसात करने का पूरा वक्‍त मिले इसलिए मेरे हिसाब से हफ्ते में तीन से ज्‍यादा पोस्‍ट थोड़ी ज्‍यादती लगती हैं ।

कामोद Kaamod August 5, 2008 at 6:49 PM  

वाह मजा आ गया

मीनाक्षी August 5, 2008 at 6:52 PM  

अलौकिक आनन्द की अनुभूति जिसे बस महसूस किया जा सकता है ... आपने सच कहा कि सुनने वाले को उस आनन्द को आत्मसात करने का वक्त मिलना चाहिए...बहुत बहुत शुक्रिया...

Parul August 5, 2008 at 7:04 PM  

mera bahut pasandeedaa geet hai ye..shukriyaa sunvaney ka..badey zamaney baad suna aaj..

Vinod Kumar Purohit August 5, 2008 at 7:13 PM  

युनूस भाई सुबह से 5 बार आपकी ताजा पोस्ट को सु चुका हूं आैर न जाने कितनी बार दिन में आैर सुनुंगा। बडा दिव्य प्रसाद दिया है आज आपने। मैं आपके विचारों की कद्र करता हूं। अच्छी चीज थोडी थोडी मिलती रहे तो ही मजा है। अब एक निवेदन सन् 1994 में एक भजन सुना था वापस सुनने में नहीं आया। कान तरस रहे है उसके लिये। बोल हैं : रात भर का है डेरा रे रे सवेरे जाना है है ये जोगी वाला फेरा रे रे सवेरे जाना है000 सांस का पंछी कब उड जाये कोई जान न पाये चलती बिरिया संग न जाये फिर काहे इतराना तेरा वहीं है बसेरा रे रे सवेरे जाना है000आदि_आदि00 अगर आप इसके बोल मेल से भेजें तो भी दोडेगा। धन्यवाद

Nitin Bagla August 5, 2008 at 7:39 PM  

बेहतरीन भजन यूनुस भाई।
आनन्दम्‌...परमानन्दम्‌...।

PD August 5, 2008 at 7:59 PM  

bahut badhiya.. main is gaane ko dhondh raha tha.. office se nahi sun sakta hun.. ghar jakar sununga.. :)

annapurna August 5, 2008 at 8:59 PM  

बहुत-बहुत शुक्रिया इस गीत की प्रस्तुति के लिए। मुझे लगता है इस गीत और फ़िल्म पुष्पांजलि के बारे में बहुत ही कम लोग जानते है। यहाँ मैं कुछ बताना चाहती हूँ।

सबसे पहले बता दूँ कि यह भजन के रूप में गीत फ़िल्म में भजन की तरह नहीं रखा गया। नायक संजय अपने कैंसर से पीड़ित छोटे से बच्चे को लेकर इलाज के लिए अकेला जा रहा है उसकी पत्नी फ़रियाल की कैंसर से मृत्यु हो चुकी है।

यह वही फ़रियाल है जिसे हम सबने बाद में कैबरे डांसर जैसी भूमिकाओं में देखा है यहाँ फ़िल्म के शुरू में बहुत थोड़ी और बहुत ही अच्छी भूमिका है।

नायक को नाव में नायिका रत्ना साहू मिलती है। दोनों पहली बार मिलते है और नाव खेने वाला यह गीत गाता है।

रत्ना साहू ने केवल दो ही फ़िल्में की इसके अलावा हरे काँच की चूड़ियाँ जिसका शीर्षक गीत विविध भारती पर बहुत बजता है। यह दोनों ही फ़िल्में फ़्लाप रही पर यह दोनों ही फ़िल्में अच्छी थी।

पुष्पांजलि का यह गीत बचपन में विविध भारती और सिलोन से बहुत सुना था और बहुत पसन्द था। बाद में यह गीत बजना बन्द हो गया।

लगभग 7-8 साल पहले मई के महीने में एक रविवार को बहुत ही गरमी थी ऐसे में तपती दोपहर में एक चैनल पर सूचना दी गई कुछ ही देर में देखिए मज़ेदार फ़िल्म पुष्पांजलि। हमें लगा यही फ़िल्म होगी।

फ़िल्म शुरू हुई और शुरू हुई कैंसर से लड़ाई मौत से लड़ाई। हम सोच रहे थे इसमें मज़ा कहाँ है। फिर नायक निकल पड़ता है नायिका मिलती है और भी बहुत से कलाकार साथ हो लिए जिनमें कामेडियन है, ललिता पवार भी रानी साहिबा की भूमिका में बहुत हँसाती है, सभी एक स्थान पर जाते है, जहाँ थोड़ी अपराध की संस्पेंस कहानी भी है।

कुल मिलाकर फ़िल्म वाकई मज़ेदार है। यह गीत (भजन नहीं) बहुत अच्छा है और अंत में रत्ना साहू द्वारा किया गया नृत्य बहुत ही अच्छा है जिससे प्रसन्न होते है शिवजी और बच्चा कैंसर से ठीक हो जाता है।

कभी मौका मिले तो फ़िल्म ज़रूर देखिए…

yunus August 5, 2008 at 10:15 PM  

अन्‍नपूर्णा जी शुक्रिया कथानक बताने के लिए ।

सुशील कुमार छौक्कर August 5, 2008 at 10:48 PM  

बहुत प्यारा गाना । शुक्रिया आपका।

RA August 6, 2008 at 12:58 AM  

यूनुस , जैसा कि आपने लिखा ,यह गीत अनमोल, दिव्य गंध से आलोकित करने वाला है : ठीक वैसा ही |
गीत सुनकर आपके लगाए गैजेट पर 'ज़बरदस्त'भी कह दिया है |

Udan Tashtari August 6, 2008 at 1:57 AM  

बेहतरीन...लगे रहिये..सुनाते रहिये.बहुत आभार.

sanjay patel August 6, 2008 at 2:55 AM  

यूनुस भाई
ऐसी गीतों को ही तो अपने समो कर चित्रपट जगत विशिष्ट बन जाता है.अभी याद नहीं आ रहा है लेकिन फ़िल्म म्युज़िक की ताक़त देखिये इसी तर्ज़ पर गुजराती का एक बहुत लोकप्रिय गरबा है जिसे नवरात्र में ख़ूब गाया जाता है. लता जी -मन्ना डे जब जब भी साथ आए हैं धुनें अनुपम सुनाई दी हैं.ग्लैमर का यह संसार इस गीत में ऐसा प्रतिध्वनित हो रहा है जैसे हम सब और आप भी यूनुस भाई चैतन्य महाप्रभु के टोले का हिस्सा बन कर राधे राधे की टेर लगा रहे हैं.
निकट आ रही श्रो कृष्ण जन्माअष्टमी की अग्रिम पाती भिजवा दी आपने.

ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey August 6, 2008 at 3:46 AM  

ओह, यूनुस, मैं कुछ थकान महसूस कर रहा था; पर आपसे कह रखा था कि यह शाम के समय घर पर सुन कर टिप्पणी दूंगा। और सही माने में सुनना सार्थक रहा। पहले तो हिदायत के अनुसार पूरे साढ़े छ मिनट का श्रवण किया। थकान उससे दूर हुयी। फिर टिप्पणियां पढ़ीं। कितनी सिनर्जेटिक टिप्पणियां आई हैं। बहुत सुन्दर!
मेरे लिये यूनुस आधुनिक युग के रसखान हैं!

sanjay patel August 6, 2008 at 3:47 AM  

यूनुस भाई
वह गुजराती गरबा याद नहीं आया तब तक मन बैचैन रहा...बोल हैं....
आवी रडियाडी पूनम नीं रातें
रातें
आवो रंग रसिया
ओ रास रमवा

गाकर देखियेगा क्या बढ़िया बैठता है "श्याम ढ़ले जमुना किनारे के मुखड़े पर’
लावण्या बेन तमारे आनंद आवी ग्यो ने...
गावो पछी....

उन्मुक्त August 6, 2008 at 5:41 AM  

मैं तो यही समझता था कि यह भजन है पर अनुपूर्णा जी की टिप्पणी से नयी बात चली। उनकी टिप्पणी के बाद भी मैं तो इसे भजन की तरह ही सुनना पसन्द करूंगा।

त्रिभुवन August 6, 2008 at 6:57 AM  

अरे युनुस जी आप तो वैसे भी संगीत के मर्मज्ञ हैं।
आप की वाणी सुनकर ही हमारे इलाहाबादी जीवन की सुरुआत होती है

डॉ. अजीत कुमार August 6, 2008 at 8:05 AM  

एक अजीब सी कशिश है इस गीत मॆं. मन कश्ती के साथ चलता सा जाता है. मन्ना दा की आवाज गीत को एक गहराई प्रदान करती है.
मैंने इस गीत को पहले नहीं सुना था, पर अब गाने को सुनकर और अन्नपूर्णा जी द्वारा इसका कथानक जानकर कोई गिला भी अब शेष नहीं है.

जोशिम August 6, 2008 at 8:17 AM  

बहुत ही दिनों बाद सुना - आनंद आया -अत्यन्त -मनीष

Manish Kumar August 6, 2008 at 3:03 PM  

Padha kal shaam ko hi tha par suna aaj. subah ke samay ke liye fit hai ye geet. shukriya is prastuti ka.

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन August 9, 2008 at 12:47 PM  

यूनुस भाई, आपका बहुत बहुत शुक्रिया इस गीत के लिए. मेरे बचपन की कुछ सबसे पहली चुनिन्दा यादों में से यह गीत भी एक है.

Tara Chandra Gupta "MEDIA GURU" August 13, 2008 at 1:32 AM  

yunus ji bahut sundar geet. sawan ho radha krsna ki...... badhai.

रज़िया "राज़" August 15, 2008 at 12:00 AM  

मज़ा आगया भाइ वाह।

Vinod Kumar Purohit February 28, 2009 at 1:33 AM  

यूनूस भाई आपने वादा किया था कि इस भजन को भेजेंगे। निवेदन है कि भेजेंगे तो कृपा होगी। एक निवेदन सन् 1994 में एक भजन सुना था वापस सुनने में नहीं आया। कान तरस रहे है उसके लिये। बोल हैं : रात भर का है डेरा रे रे सवेरे जाना है है ये जोगी वाला फेरा रे रे सवेरे जाना है000 सांस का पंछी कब उड जाये कोई जान न पाये चलती बिरिया संग न जाये फिर काहे इतराना तेरा वहीं है बसेरा रे रे सवेरे जाना है000आदि_आदि00 अगर आप इसके बोल मेल से भेजें तो भी दोडेगा। धन्यवाद

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