काहे को ब्याहे बिदेस-जगजीत कौर की आवाज़ ।।
घर में शादी का उत्सव । झिलमिल रोशनी, लकदक कपड़े, आंखों में चमक लिये रस्मों और परंपराओं को निबाहते बूढ़-बुजुर्ग । शादी को गुड्डे-गुडि़या का खेल समझते बच्चे और स्पीकर पर बजते गीत । बेटी की शादी में बिदाई से ठीक पहले तक माहौल एकदम चमकीला रहता है । लेकिन बिदाई पर आंसूओं की धारा बहने लगती है ।
जिस मां ने नाज़ों से पाला, जिसने बचपन में बड़े जतन ने नाक-कान छिदवाए, बाली-लौंग-पायल पहनाई, जिसने पहली बार यूनीफॉर्म पहनाकर स्कूल भेजा, जिसने बड़े होने पर झिड़कियों के तीर चलाए, जिसने सही वर की तलाश में धरती आकाश एक कर दिये, जिस पिता ने हर जायज़-नाजायज़ मांग को पूरा किया, जिसने कड़क अनुशासन का माहौल बनाए रखा, कभी दिखाया नहीं कि भीतर से उनका दिल कितना कोमल है, जिस पिता ने स्कूटर चलाना सिखाया, जिसने जिद करके अच्छे कॉलेजों में भेजा, जिस भाई ने बचपन से आज तक झगड़े किए, चोटी खींची, तंग किया, जिस बहन ने कभी चिढ़ पैदा की, कभी सहेली की भूमिका निभाई, वो सब के सब.....परिवार के वो सारे सदस्य अब घर से बिदा कर रहे हैं ।
बेटी या बहन की बिदाई पर पत्थर भी पिघल जाते हैं । हिंदी फिल्मों में बिदाई के कुछ मार्मिक गीत बने हैं । रेडियोवाणी पर आज हम आपको
भैया को दियो बाबुल महलां दो महलां अरे हम को दिये परदेस, अरे लखियां बाबुल मोहे । काहे को ब्याहे बिदेस
सुनवा रहे हैं सन 1981 में आई मुज़फ्फर अली द्वारा निर्देशित फिल्म 'उमराव जान' का एक गीत जिसे जगजीत कौर और सखियों ने गाया है । संगीतकार हैं ख़ैयाम । ये गीत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने लिखा है । इसके कुछ अंश जगजीत कौर ने इस फिल्म में गाए हैं । पूरी रचना को आप यहां कविता-कोश में पढ़ सकते हैं । जगजीत कौर के बारे में आपको बताना ज़रूरी है । वे संगीतकार ख़ैयाम की पत्नी हैं । और बहुत ही कमाल की गायिका हैं । वे एक सोंधी पंजाबी आवाज़ हैं । एक खालिस स्वर । इस गाने में 'अरे लखियां बाबुल मोहे' की कितनी कितनी अदायगी उन्होंने की है, और गाने में किस तरह जज़्बात उतारे हैं, ध्यान से सुनिएगा । उनके कुछ गानों की सूची आप यहां देख सकते हैं ।ख़ैयाम के संगीत की ख़ासियत रही है उनका अद्भुत संगीत संयोजन । शहनाई की मार्मिक तान और साथ में ठेठ उत्तर भारतीय ढोलक । मुझे हैरत होती है कि एक तरफ शहनाई जहां शुभ अवसरों पर उल्लास का स्वर बन जाती हैं वहीं बिदाई पर शहनाई किसी मां के चाक-जिगर की आवाज़ जैसी लगती है । ख़ैयाम ने इस गाने के एक अंतरे के बाद बांसुरी का इस्तेमाल किया है । चूंकि उमराव जान फिल्म का सेट-अप और युग एकदम अलग था इसलिए संतूर भी पूरे गाने में छाया हुआ है । तो आईये रविवार की इस सुबह आंसुओं से भीगे इस गाने को सुनकर थोड़े-से उदास हो जाएं ।
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17 टिप्पणियां:
सुबह सुबह दिन अच्छा कर दिया आपने.. :)
दीदी कि याद भी दिला दी.. :(
युनुस भाई, बहुत बहुत आभार इस दिलकश नगमे के लिए. जगजीत कौर की आवाज के तो हम मुरीद हैं पर अफ़सोस की बात है कि उनके एलबम्स मार्केट में नहीं मिलते. शायद कोई रिलीज ही नहीं हुआ होगा. छिट-पुट अलग-अलग फिल्मों से कुछ गीत ही मिल पाते हैं.
वे खय्याम साहब की पत्नी हैं, ये बात पता नहीं थी, या शायद कभी सुना होगा पर याद नहीं था. खय्याम साहब का एक अलग ही निराला अंदाज है. क्या दौर था वो भी. अक्सर उस समय का कोई गीत सुनकर आप संगीतकार के नाम का अंदाजा लगा सकते हैं. हर एक का अपना अलग अंदाज हुआ करता था. आजकल तो सभी एक जैसे ही कर्णकटु लगते हैं. कोई अन्तर नहीं.
अरे बीरन ने खाई पछाड़, अरे लखियां बाबुल मोहे ।
काहे को ब्याहे बिदेस ।। ॥ rula diye aap..adhbhut likha aur gayaa gayaa hai...
मेरी पत्नी भाव विभोर हो गयी हैं, यूनुस!
भाई गाना सुनाकर पुरानी यादे तरोताजा हो गई है जी करता है कि आज दिनभर सुनता रहूँ . धन्यवाद्.
हम तो बाबुल तोरे पिंजरे की चुनिया
अरे कुहुक कुहुक रह जाएं ।।
काहे को ब्याहे बिदेस ।।
दिल को चीर जाता है यह गाना ...शुक्रिया इसको सुनवाने का
"हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियां
घर-घर मांगी हैं जाये अरे लखियां बाबुल मोहे । "
बहुत ही सुन्दर! भगवान से ये ही प्रार्थना की घर-घर मांगी जायें ये कलियां।
सुनवाने के लिये शुक्रिया।
बहुत ही प्यारा गाना है। सुनवाने के लिए शुक्रिया आपका।
यूनुस भाई
बड़े भारी मन से ये टिप्पणी लिख रहा हूँ.
जब आपकी यह पोस्ट पढ़ रहा था तब मेरे एक अनन्य संगीतप्रेमी मित्र डॉ.गुरमीतसिंह नारंग का एस.एम.एस.आया ...मज़मून था...मेरी बेटी तवलीन बीती रात मुझे हमेशा के लिये छोड़ गई.ग़ौरतलब है कि दसवीं कक्षा की मेधावी छात्रा तवलीन पिछले दो बरसों से घुटने के कैंसर से पीड़ित थी . एक बरस मुंबई के प्रतिष्ठित दवाख़ाने में रही और एक बरस से इन्दौर में स्वास्थ्य लाभ कर रही थी. लगता था कि सब ठीक हो रहा है लेकिन पिछले एक दो महीने से उसकी तबियत लगातार गिरती जा रही थी. ये नितांत निजी बात इसलिये आपसे बाँट रहा हूँ कि तवलीन ने कुछ बरसों पहले अपनी माँ और भाई को भी गवाँ दिया था. लेकिन डॉ.नारंग साहब की तारीफ़ करनी होगी कि उन्होने तवलीन की ख़ैरियत के लिये कोई कोशिश बाक़ी नहीं रखी. वे ख़ुद माँ बनकर तवलीन की ख़ातिर कर रहे थे. दो साल से गुरमीत भाई ने अपनी फ़ैक्ट्री जाना भी तक़रीबन बंद कर रखा था. बेटी को ऐसा दुलार और सार-सम्हाल देना वाक़ई प्रशंसनीय है ...लेकिन आज ऐसा लगा कि आपने ये पोस्ट मेरे मित्र के लिये अपनी नाज़ों से पाली बेटी के नाम ही जारी दी हो.एस.एम.एस.मिलने के बाद ये कमेंट लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था और मन को कुछ व्यवस्थित कर के अब लिखने बैठा हूँ....
आइये....तवलीन को याद करते हुए मुनव्वर राना साहब का लिखा ये शे’र अपनी तमाम बहन/बेटियों के नाम कर दें.......
ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया
उड़ गई आँगन की चिड़या घर अकेला रह गया.
Behad marmik :(
संजय भाई तवलीन के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ । ये पोस्ट तवलीन के नाम की जाती है ।
भगवान उसकी आत्मा को शांति दे ।
Abhi kuch dinon pehle Junoon par lokgeet gayika Malini Awasthi ne ise apni aawaaz dee thi. Jagjit Kaur Khayaam Sahab ki patni hain ye soochna aapki is geet ke bare mein doosri post se mili thi.
Sanjay bhai tavleen ke bare mein jaan kar dukh hua. Yahi prarthna karoonga ki narang sahab ko bhagwaan dukh sahne ki shakti de.
....... ?? ......
Is Geet ko sab se pahale Suna tha, T.V. Serial Amir Khusaro me. Fir ek cassete tha mere neighbour ke paas un se suna kai baar ...aur fir vahi Parul ki bataai gai line bahut chhuti thi.
Tavalin ke liye kya kahu.n...Ishwar GUrmeet ji ko ye dukh sahane ki shakti pradaan kare.n
aap sabhi ka shukriya , apne meri ladli tavleen ko itna pyar diya.
आभार/आपने ये गाना सुनवा कर घर की याद दिला दी वो भी भीगी-भीगी पलकों के साथ/बहुत ही भावुक कर देने वाला गाना/
गीत सुनकर आँसू बह निकले और लवलीन के बारे में पढकर दिल तड़प उठा...ईश्वर नन्ही सी आत्मा को शांति दे..
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