क़व्वाली में कबीर-'भला हुआ मोरी गगरी टूटी': मुंशी रज़ीउद्दीन और फ़रीद अयाज़
क़व्वाली में कबीर---ये बात ज़रा अजीब लगती है । पर एक क़व्वाल घराना ऐसा है जो बरसों-बरस से 'कबीर' की साखियों को क़व्वालियों के रूप में गाता रहा है । आज इसी घराने की बात की जायेगी ।
अपनी श्रृंखला 'कल्ट-क़व्वालियां' के ज़रिए हम 'एक्सप्लोर' कर रहे हैं क़व्वालियों के अनूठे संसार को । यहां मुहब्बतों की क़व्वालियां फिलहाल नहीं सुनवाई जायेंगी । ना ही उनकी बारी जल्दी आयेगी । अभी तो हम रूहानी दुनिया के सुकून भरे रास्तों पर तफरीह़ कर रहे हैं । इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में हमने 'क़व्वाल बच्चों के घराने' की बात की थी । मुंशी रज़ीउद्दीन इस घराने के एक स्तंभ हैं । जो 1919 में दिल्ली में पैदा हुए थे । रज़ीउद्दीन उस्ताद उमराव ख़ान के पोते थे--जो हैदराबाद दकन रियासत के दरबार में संगीतकार थे । रज़ी ने अपने बड़े भाई अब्दुल हमीद ख़ां और चाचा अब्दुल करीम ख़ां से शास्त्रीय-संगीत की तालीम ली थी । अपनी तालीम पूरी करने के बाद मुंशी रज़ीउद्दीन ओस्मानिया रियासत के रेडियो स्टेशन में लग गए । कुछ वक्त तक उनका ताल्लुक आकाशवाणी से भी रहा । विभाजन के बाद मुंशी रज़ीउद्दीन करांची चले गए । हालांकि उन्हें दिल्ली में उनके तमाम साथियों ने रोकने की कोशिश की लेकिन उनका मन कराची में अपने परिवार के पास जाने की था । एक ब्लॉग पर ये पता चला कि 'मुंशी' उन्हें इसलिए कहा जाता रहा क्योंकि काफी कम उम्र में उन्होंने उर्दू की 'मुंशी फ़ाजि़ल' की डिग्री हासिल कर ली थी । इसलिए परिवार और बाहर के लोग उन्हें अदब से मुंशी कहते रहे । मुंशी रज़ीउद्दीन ने शास्त्रीय-गायन भी किया और क़व्वालियां भी गाईं ।
फ़रीद-अयाज़ क़व्वाल मुंशी रज़ीउद्दीन के ही बेटे हैं । कुछ बरस पहले यानी मुंशी रज़ी के निधन से पहले तक तीनों एक साथ क़व्वालियां गाते थे । और वो समां ही कुछ और होता था । जी नहीं...काश...हम देख पाते मत कहिए । यूट्यूब पर सर्च कीजिए 'मुंशी रज़ीउद्दीन' और अभी इसी वक्त देखिए । हिस्सा बन जाईये क़व्वाली की उस तरंग का....जो आज बहुत दुर्लभ है । 'क़व्वाल बच्चों के घराने' में 'कबीर' को गाने की परंपरा रही है । आज इस घराने की गायकी का परिचय कराते हुए हम पेश कर रहे हैं एक बेहद मक़बूल क़व्वाली 'भला हुआ मोरी गगरी फूटी' । इसे कबीर की रचनाओं का कोलाज या मोन्टाज कहा जा सकता है । नीचे दो ऑडियो फाईलें लगाई गई हैं । एक में फ़रीद अयाज़ अकेले गा रहे हैं । दूसरी फाईल में मुंशी रज़ीउद्दीन प्रमुख गायक हैं और फ़रीद अयाज सहायक गायक ।
भला हुआ मोरी गगरी फूटी--मुंशी रज़ीउद्दीन एवं साथी ।
चूंकि ये एक लाईव-कंसर्ट की रिकॉर्डिंग है, इसलिए साउंड-क्वालिटी के मामले में थोड़ा समझौता करना पड़ा है ।
अवधि--9:29 मि.
'भला हुआ मोरी गगरी फूटी' --फ़रीद अयाज़ क़व्वाल एवं साथी ।
अवधि--6:44 मि.
क़व्वाली में शामिल कुछ साखियां ।
कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक
भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।।
भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनियां भरन से छूटी
मोरे सिर से टली बला ।।
चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच यार साबुत बचा ना कोए ।।
चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे ना कोए
जो कीली से लाग रहे, बाका बाल ना बीका होए ।।
हर मरैं तो हम मरैं, और हमरी मरी बलाए
साचैं उनका बालका कबीरा, मरै ना मारा जाए ।
माटी कहे कुम्हार से तू का गोंधत मोए
एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं गूंधूंगी तोय ।।
कविता कोश में कबीर को यहां पढ़ें ।
दिलचस्प बात ये है कि उक्त दोनों क़व्वालियों के कई संस्करण उपलब्ध हैं । जिनमें हर बार साखियां बदल जाती हैं । यूट्यूब पर आप ये रचनाएं यहां देख-सुन सकते हैं । रेडियोवाणी पर 'कल्ट-क़व्वालियों' का ये अनियमित-सिलसिला जारी रहेगा, अगर पाठकों के पास इस दर्जे की कोई 'कल्ट-क़व्वाली' है तो मेरे ईमेल पते पर संपर्क करें ।
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11 टिप्पणियां:
'भला हुआ मोरी गगरी फूटी' सुनते हुए यह टिप्पणी लिख रहा हूं। दिन यूं तो आधा होने आया है किन्तु मेरी तो सुबह ही अभी हुई है और सुबह-सुबह ही कबीर के हत्थे चढ गया हूं।
आज बीमे का कोई काम नहीं करूंगा। कोशिश करूुगा कि कुछ बेहतर और भले लोगों के पास जाकर कुछ घडियां गुजारुं।
कबीर से हुई शुरुआत का यही फालो-अप सूझा है मुझे।
इस सबके लिए आपको धन्यवाद।
कव्वाली के जुदा रंग में आज सुबह सुबह तर कर दिया आपने.
कल्ट कव्वाली का ये सफ़र अनवरत चलता रहे ये दुआ. मोहब्बत की कव्वालीयों की यहां ज़रूरत नहीं है जनाब. वैसे मुझे इल्म नही है, कव्वाली का तो एक ही रूप है मेरी समझ से - जो रूहानी दुनिया से हमारा परिचय कराता है, जिसमें एक ही मेहबूब है, और हद से अनहद का सफ़र है...
वाह.....! मज़ा आ गया यूनुस जी....!
कल यूँ ही एक कल्ट कव्वाली यू-ट्यूब पर देखते समय मेरा एक मित्र मुझसे पूछ बैठा कि तुम्हे यह सब सच में अच्छा लगता है या बस ऐसे ही दिखाने के लिए सुनते हो? :)
अब उन्हें कौन समझाए कि बस दिखावे के लिए यह सब नहीं सुना जा सकता है.. :)
आनंद आ गया यूनूस जी।
कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक
भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।।
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विभिन्न धर्म नेतागण भी समझ पाते!
कल्ट कव्वालियों की सीरिज ऐसे ही चलती रहे!
ये शानदार प्रस्तुतियां सुनवाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
yunus ji I am spellbound. Listening to Kabir in kavvali form is a totally different expereince..Thank you very much for such informative post...waiting for the next post...लेकिन एक बात जरूर कहना चाहूंगी। आप मौहब्बत की कव्वालियों को रुहानी कव्वालियों से अलग मान रहे है? मेरी नजर में तो मौहब्बत ही रुहानी है। जो मेरी रूह को सकून दे वही रुहानी है फ़िर वो हो इंसा या पत्थर या कोई हर्फ़ या कव्वाली।
बढ़िया... कल्ट कव्वालियाँ सुनने की लंबे वक़्त से आरजू थी... आना बना रहेगा.
बहुत शानदार सीरीज...कबीर साहब की बात ही क्या है...कव्वाली में दाद की आवाज़े भी अच्छी लग रही है। संयोग है कि शब्दों का सफर में भी मैं इन दिनों सूफी-संत श्रंखला पर ही काम कर रहा हूं।
Vakai durlabh kawaali.
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