‘मुझको इतने से काम पर रख लो’ चलिये सुनें गुलज़ार का सबसे रूमानी गीत, अलबम बूढ़े पहाडों पर ।
प्रिय मित्रो
कुछ दिन पहले मैंने आपको ‘बूढ़े पहाड़ों पर’ अलबम का शीर्षक गीत सुनवाया था और ये वादा किया था कि आगे चलकर इसी अलबम के अन्य गीतों का विश्लेषण भी प्रस्तुत करूंगा । इसलिए आज ऐसे ही एक गीत की बात जो मुझे गुलज़ार ही नहीं बल्कि तमाम गीतकारों के लिखे रूमानी गीतों में सबसे ज्यादा कल्पनाशील और नाज़ुक लगता है । मैं आपको पहले ही बताना चाहता हूं कि अगर ये गीत बहुत संभल के नहीं लिखा जाता तो फ़ौरन अश्लील हो सकता था ।
गुलज़ार वैसे भी बहुत क्रांतिकारी रूमानी गीत लिखने में उस्ताद रहे हैं । परंपरावादी लोग इसी मामले में गुलज़ार से चिढ़ते पाए जाते हैं । एक मशहूर शख़्स थे, मेरे सहकर्मी, उनसे अकसर मेरी बहस हो जाती थी, वो कहते—अमां ये भी कोई बात हुई, आपका पसंदीदा शायद आंखों की ‘महकती खुश्बू’ देख रहा है । आंखों में ‘महकते ख्वाब’ उसे नज़र आ रहे हैं । उसकी रात ‘सीली सीली बिरहा’ की है । रूपकों के मामले में इतना आवारा शायर मैंने नहीं देखा ।
और मुझे उन्हें छेड़ने में मज़ा आता था । मैं उन्हें अकसर गुलज़ार के किसी ना किसी नये-पुराने गाने के बहाने ‘छेड़’ देता था और फिर हमारी बहस शुरू हो जाती । जैसे कभी कह दिया कि वाह क्या गीत है ‘रोज़ रोज़ आंखों तले, एक ही सपना पले, रात का आंचल जले’ अहाहा क्या कल्पना है । बस बहस शुरू । परंपरावादी शायद क्रोधित और अपन खुश । कुछ साथी उस तरफ और कुछ मेरी तरफ । घंटा दो घंटा आराम से मानसिक जुगाली में कट जाता था । बहस के हथियार बनते थे शकील, मजरूह, राजेंद्र कृश्न जैसे गीतकारों के परंपरावादी क्लासिक गीत । मेरे पास गुलज़ार के गीतों का ज़ख़ीरा होता । कभी कहता ‘वाह वाह चप्पा चप्पा चरख़ा चले’ वाह क्या बात है । वो कहते, अमां ये कोई गीत है, चरख़ा कोई गीत में आने लायक़ चीज़ है । फिर कभी मैं कह देता, ‘सीली हवा छू गयी, गीला बदल जल गया, वाह क्या बात है’ आपने सुना ये गाना, और वो कहते—अमां गीला बदन भी कभी जलता है । अरे किस क़दर नामुराद है ये शायर । बहरहाल ये तो रही परंपरावादी लोगों के गुलज़ार की मिसालों से चिढ़ने की बात । इसी बहाने थोड़ा सा विषयांतर हो गया ।
आईये इसी गीत पर वापस आते हैं ।
इस गाने में गुलज़ार की कल्पना एक प्रेमी की शरारत भरी कल्पना है ।
लेकिन ये एक ऐसे प्रेमी की कल्पना है जो अपनी मेहबूबा को शिद्दत से प्यार करता है, और उसका बहुत बहुत ख्याल रखना चाहता है । पर आज का कोई ऐरा-ग़ैरा गीतकार होता तो इसे आसानी से अश्लीलता की हदों के पार ले जाता । तलवार की धार पर चलकर गुलज़ार ने इस गाने को बहुत प्यारी नाज़ुकी का जामा पहनाया है । और इस बात के लिए मैं गुलज़ार को सलाम करता हूं ।
अब इस गाने की धुन और गायकी की बात हो जाए ।
इस गाने की धुन को शुद्ध पश्चिमी धुन पर बनाया गया है । पर वाद्य रखे गये हैं शुद्ध भारतीय । कमाल का वाद्य संयोजन है विशाल भारद्वाज का । सितार का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है इस गाने के इंटरल्यूड में । ध्यान से सुनकर पहचानियेगा । और हां वायलिन से जो धुन रची गयी है इंट्रो और अंतरे में वो कमाल की है, उसके पीछे पीछे सितार आता है तो बड़ा प्यारा लगता है । छोटा सा गाना है, सुरेश वाडकर की गायकी का सही इस्तेमाल कितना कम हुआ है, ये गाना इस बात को साबित करता है । इसकी मिसाल सुनिए, किस तरह सुरेश हल्की सी मुस्कान या हंसी के साथ ‘मैं हाथ से सीधा करता रहूं उसको’ गाते हैं । वाह सुरेश साहब कमाल है । गाने के भावों को आपने गायकी से दृश्य में बदलके रख दिया है । अब आप इस गाने को सुनिए और बताईये कि कैसा लगा ये गाना ।
इस गाने को सुनने के लिए यहां क्लिक कीजिए ।
कुछ दिन पहले मैंने आपको ‘बूढ़े पहाड़ों पर’ अलबम का शीर्षक गीत सुनवाया था और ये वादा किया था कि आगे चलकर इसी अलबम के अन्य गीतों का विश्लेषण भी प्रस्तुत करूंगा । इसलिए आज ऐसे ही एक गीत की बात जो मुझे गुलज़ार ही नहीं बल्कि तमाम गीतकारों के लिखे रूमानी गीतों में सबसे ज्यादा कल्पनाशील और नाज़ुक लगता है । मैं आपको पहले ही बताना चाहता हूं कि अगर ये गीत बहुत संभल के नहीं लिखा जाता तो फ़ौरन अश्लील हो सकता था ।
गुलज़ार वैसे भी बहुत क्रांतिकारी रूमानी गीत लिखने में उस्ताद रहे हैं । परंपरावादी लोग इसी मामले में गुलज़ार से चिढ़ते पाए जाते हैं । एक मशहूर शख़्स थे, मेरे सहकर्मी, उनसे अकसर मेरी बहस हो जाती थी, वो कहते—अमां ये भी कोई बात हुई, आपका पसंदीदा शायद आंखों की ‘महकती खुश्बू’ देख रहा है । आंखों में ‘महकते ख्वाब’ उसे नज़र आ रहे हैं । उसकी रात ‘सीली सीली बिरहा’ की है । रूपकों के मामले में इतना आवारा शायर मैंने नहीं देखा ।
और मुझे उन्हें छेड़ने में मज़ा आता था । मैं उन्हें अकसर गुलज़ार के किसी ना किसी नये-पुराने गाने के बहाने ‘छेड़’ देता था और फिर हमारी बहस शुरू हो जाती । जैसे कभी कह दिया कि वाह क्या गीत है ‘रोज़ रोज़ आंखों तले, एक ही सपना पले, रात का आंचल जले’ अहाहा क्या कल्पना है । बस बहस शुरू । परंपरावादी शायद क्रोधित और अपन खुश । कुछ साथी उस तरफ और कुछ मेरी तरफ । घंटा दो घंटा आराम से मानसिक जुगाली में कट जाता था । बहस के हथियार बनते थे शकील, मजरूह, राजेंद्र कृश्न जैसे गीतकारों के परंपरावादी क्लासिक गीत । मेरे पास गुलज़ार के गीतों का ज़ख़ीरा होता । कभी कहता ‘वाह वाह चप्पा चप्पा चरख़ा चले’ वाह क्या बात है । वो कहते, अमां ये कोई गीत है, चरख़ा कोई गीत में आने लायक़ चीज़ है । फिर कभी मैं कह देता, ‘सीली हवा छू गयी, गीला बदल जल गया, वाह क्या बात है’ आपने सुना ये गाना, और वो कहते—अमां गीला बदन भी कभी जलता है । अरे किस क़दर नामुराद है ये शायर । बहरहाल ये तो रही परंपरावादी लोगों के गुलज़ार की मिसालों से चिढ़ने की बात । इसी बहाने थोड़ा सा विषयांतर हो गया ।
आईये इसी गीत पर वापस आते हैं ।
इस गाने में गुलज़ार की कल्पना एक प्रेमी की शरारत भरी कल्पना है ।
लेकिन ये एक ऐसे प्रेमी की कल्पना है जो अपनी मेहबूबा को शिद्दत से प्यार करता है, और उसका बहुत बहुत ख्याल रखना चाहता है । पर आज का कोई ऐरा-ग़ैरा गीतकार होता तो इसे आसानी से अश्लीलता की हदों के पार ले जाता । तलवार की धार पर चलकर गुलज़ार ने इस गाने को बहुत प्यारी नाज़ुकी का जामा पहनाया है । और इस बात के लिए मैं गुलज़ार को सलाम करता हूं ।
अब इस गाने की धुन और गायकी की बात हो जाए ।
इस गाने की धुन को शुद्ध पश्चिमी धुन पर बनाया गया है । पर वाद्य रखे गये हैं शुद्ध भारतीय । कमाल का वाद्य संयोजन है विशाल भारद्वाज का । सितार का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है इस गाने के इंटरल्यूड में । ध्यान से सुनकर पहचानियेगा । और हां वायलिन से जो धुन रची गयी है इंट्रो और अंतरे में वो कमाल की है, उसके पीछे पीछे सितार आता है तो बड़ा प्यारा लगता है । छोटा सा गाना है, सुरेश वाडकर की गायकी का सही इस्तेमाल कितना कम हुआ है, ये गाना इस बात को साबित करता है । इसकी मिसाल सुनिए, किस तरह सुरेश हल्की सी मुस्कान या हंसी के साथ ‘मैं हाथ से सीधा करता रहूं उसको’ गाते हैं । वाह सुरेश साहब कमाल है । गाने के भावों को आपने गायकी से दृश्य में बदलके रख दिया है । अब आप इस गाने को सुनिए और बताईये कि कैसा लगा ये गाना ।
इस गाने को सुनने के लिए यहां क्लिक कीजिए ।
मुझको इतने से काम पे रख लो
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाये तो
मैं हाथों से सीधा करता रहूं उसको ।।
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाये तो
मैं हाथों से सीधा करता रहूं उसको ।।
जब भी आवेज़ा, उलझे बालों में (नोट-शायद आवेज़ा कोई ज़ेवर होता होगा)
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह, चुभता है ये, अलग कर दो
मुझको इतने से काम पे रख लो ।।
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह, चुभता है ये, अलग कर दो
मुझको इतने से काम पे रख लो ।।
जब ग़रारे में पांव फंस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
इक नज़र देख लो तो काफ़ी है
मुझको इतने से काम पे रख लो ।।
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उलटा हो जाए तो
मैं हाथ से सीधा करता रहूं उसको ।।
आगे चलकर ‘बूढ़े पहाड़ों पर’ अलबम के कुछ और गानों की चर्चा की जाएगी ।
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8 टिप्पणियां:
वाह आप बडे़ दिलचस्प गाने सुनाते है युनुस भाई...
शानू
आवेज़ मूल शब्द है, आवेज़ा का फ़ारसी से अर्थ है अस्थिर, लटकानेवाले. डिक्शनरी में देख कर बता रहा हूं.
गाने तो लाजवाब सुनाते है आप पर आज शब्दों मे गलती कैसे हो गयी जैसे बदन की जगह बदल ,शायर की जगह शायद लिखा है।
Nahi - hamen yeh geet pasand nahi.
Hamen tho ye hi acchha lagatha hai-
Hamne dekhi hai oon Ankho ki mahakthi khooshboo
Aankh se chhuu ke isi rishton ka ilzaam naa do.
Annapurna
गुलज़ार के गीत तो...क्या कहने।
शुक्रिया इतने सुन्दर गीत के लिए।
यूनुस भाई, वाक़ई बहुत रुमानी गीत है। सुन नहीं सका, क्योंकि साउण्ड कार्ड ख़राब हो गया है। लेकिन अगर पढ़ने में यह इतना बढ़िया है, तो सुनने में कैसा होगा?
युनूसभाई,
आप कुछ भी कहे, लेकिन इस अल्बम मे गीत, संगीत और गायकी की भट्टी कुछ ठीकसे जमी नही है. आश्चर्य नही की यह अल्बम उपेक्षित रहा है. गुलजारजी का जो ट्यूनिंग पंचमदा और आशाजी के साथ जमता था (दिल पडोसी है. इजाजत) वो बात ही कुछ और थी. अगर अंग्रेजी में कहा जाये तो He is not in his eliment. और हा, मधुबालाजी की तस्वीर बडी लाजवाब है. पर उसे यहां देनेका प्रयोजन ?
युनुस भाई.. अभी यह पोस्ट पढ़कर मैं और मेरा एक मित्र ठहाके मर कर हंस रहे हैं कि कैसे आप अपने सहकर्मी को छेड़ते थे.. :)
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