क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए--आईये सुनें डॉ राही मासूम रज़ा की दो दुर्लभ ग़ज़लें
रेडियोवाणी पर कुछ दिनों पहले हमने आपको सुनवाई थी डॉ. राही मासूम रज़ा की एक ग़ज़ल, उन दिनों हिंदी चिट्ठों पर कई जगह राही मासूम रज़ा का जिक्र हुआ था । मनीष ने भी आपको राही की ही एक ग़ज़ल सुनवाई थी । और कुर्बान अली का एकशानदार लेख भी आया था राही मासूम रज़ा पर । दरअसल इसी लेख से ये सारा सिलसिला शुरू हुआ था ।
बहरहाल उस वक्त रेडियोवाणी पर आपसे एक वादा किया गया था । डॉ. राही मासूम रज़ा की कुछ दुर्लभ ग़ज़लें सुनवाने का वादा । आज उस वादे को पूरा करने का दिन आ गया है ।
आधा गांव, ओस की बूंद और टोपी शुक्ला जैसी बेसिमाल कृतियों के रचनाकार राही मासूम रज़ा वाक़ई बड़ी बहुरंगी शख्सियत थे । एक तरफ़ वो शाइरी करते रहे । जिसकी उन्होंने ज्यादा चर्चा भी नहीं की । दूसरी तरफ उनकी साहित्यिक रचनाएं, उनकी कहानियां और उपन्यास आते रहे । इस सबसे अलग फिल्म संसार में वो एक ज़हीन लेखक के तौर पर स्थापित हो चुके थे । महाभारत जैसे सीरियल में उनकी रचनात्मकता देखकर लोगों को थोड़ी हैरत तो हुई ही कि भला एक......।
राही मासूम रज़ा के बेटे नदीम ख़ान जाने माने कैमेरामैन रहे हैं । उन्होंने विख्यात पॉप गायिका पार्वती ख़ान से विवाह रचाया है । पार्वती ख़ान को आप फिल्म 'डिस्को डान्सर' के गीत 'जिमि जिमि आजा' की गायिक के तौर पर जानते हैं । लेकिन बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि पार्वती ने डॉ. राही मासूम रज़ा और अन्य शायरों की रचनाओं को अपने सबसे पहले ग़ैर फिल्मी एलबम 'missing you' में गाया था और बहुत ख़ूब गाया था । आईये आज इसी अलबम की राही मासूम रज़ा की दो ग़ज़लें सुनी जाएं । ये पार्वती ख़ान की आवाज़ का एकदम अलग रंग है । अफ़सोस है कि आजकल वो ज्यादा नहीं गातीं ।
राही साहब के भीतर एक नाज़ुकतरीन शायर मौजूद था । जिंदगी के इतने छोटे-छोटे अहसास उन्होंने पकड़े हैं कि उन पर कुरबान होने को जी चाहता है । ज़रा इस ग़ज़ल को पढि़ये और इस बात को महसूस कीजिए । फिर ज़रा पार्वती की आवाज़ में इसे सुनिए । कितनी प्यारी धुन, कितना प्यारा संगीत ।
क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
क्या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।
हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।
इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
जाने क्या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।।
हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।
क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।
और आईये अब सुनी जाये दूसरी ग़जल । इस ग़ज़ल में भी वहीं बात है । बहुत छोटे छोटे महीन अहसास हैं जिन्हें ग़ज़ल में पिरोया गया है । काश कि राही साहब और लिखते और पार्वती उन्हें और गातीं ।
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्बू के मकां कैसे हैं ।।
ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।।
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।।
मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।।
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।।
उम्मीद है कि राही साहब की ये ग़ज़लें आपके भीतर कुछ नरमो-नाज़ुक अहसास पैदा करेंगी ।
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4 टिप्पणियां:
बिल्कुल अंदाजा नही थी की पार्वती खान गज़लें भी गाती है, और वो भी इतनी सुंदर, बहुत बढ़िया
शुक्रिया इन ग़ज़लों को यहाँ पेश करने का। पहली ग़ज़ल की धुन बहुत प्यारी लगी। पार्वती जी के गाने का अंदाज बहुत कुछ पीनाज मसानी से मिलता जुलता है।
बहुत ही सुन्दर ! सुनवाने के लिये धन्यवाद ! इन गानों को डाउनलोड करके बाद मे सुनने का कोई जुगाड है ?
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्बू के मकां कैसे हैं ।।
बहुत ही सुन्दर ...सुनवाने का शुक्रिया
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