ये फ़ासले तेरी गलियों के हमसे तय ना हुए, हज़ार बार रूके हम हज़ार बार चले--जगजीत सिंह की आवाज़ फिल्म-मम्मो की दुर्लभ ग़ज़ल ।
पिछले दिनों निहारिका का संदेश आया कि जगजीत सिंह की ग़ज़ल 'ये फ़ासले तेरी गलियों के हमसे तय ना हुए' अगर कहीं से मिल जाए तो सुनवाईये । फौरन ज़ेहन में ये ग़ज़ल तैर गयी । याददाश्त पर ज़ोर डाला तो इतना तो याद आया कि ये किसी फिल्म में शामिल थी, पर फिल्म का नाम याद ही ना आए । आखि़रकार इंटरनेटी-छानबीन से पता चला कि इसे श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्म 'मम्मो' में शामिल किया था ।
सन 1994 में आई ये फिल्म विभाजन के बहुत बरस बाद भी सरहद के दोनों तरफ मौजूद लोगों की आपस में मिलने की कसक को बयान करती है । सरहद रिश्तों के बीच आकर खड़ी हो गयी है । सरहद अपनों को अपनों से मिलने के लिए रोक रही है । लेकिन मम्मो इस सरहद को नहीं मानती । मम्मो इस सरहद से अपने ही तरीक़े से बग़ावत करती है । अगर आपने ये फिल्म अभी तक नहीं देखी है तो ज़रा यहां क्लिक कीजिए और यहां भी ।
बहरहाल....इस ग़ज़ल को सुनवाने से पहले इसकी पृष्ठभूमि बतानी ज़रूरी थी, अब आपके लिए इस ग़ज़ल का हर शेर एक गहरा दर्शन बन जाएगा । आपको बता दूं कि ये ग़ज़ल कहीं भी....जी हां कहीं भी उपलब्ध नहीं है । दिक्कत ये है कि श्याम बेनेगल अपनी फिल्मों के संगीत के लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं रहते । उनकी कई फिल्मों का संगीत रिलीज़ भी नहीं किया गया । मम्मो की ये ग़ज़ल फिल्म में भी ज़रा-सी ही इस्तेमाल की गयी है ।
.... ये कैसी सरहदें उलझी हुई हैं पैरों में........हम अपने घर की तरफ उठके बार बार चले ।
पर संगीतकार वनराज भाटिया के ख़ज़ाने से ये ग़ज़ल आप तक पहुंच रही है । हम बेहद शुक्रगुज़ार हैं उनके....जो उन्होंने ये अनमोल मोती हमें दिए । उनके चाहने वालों के लिए ये एक अनमोल नज़राना है । इंटरनेट पर मैंने देखा कि बरसों बरस से लोग इसे खोज खोजकर परेशान हैं और उन्हें ये ग़ज़ल मिल नहीं रही । बडी शिद्दत से किसी गीत को खोजते रहने की विकलता मैं समझ सकता हूं । मेरे पास ऐसे गीतों की लंबी फेहरिस्त है....जो अभी तक मिले नहीं...जिनकी खोज जारी है ।जगजीत सिंह ने इस ग़ज़ल को बहुत ख़ूबसूरती से गाया है । ये गुलज़ार की रचना है....। आईये इस ग़ज़ल से होकर गुज़रें । इसे बार बार सुनें ।
ये फासले तेरी गलियों के हमसे तय ना हुए
हज़ार बार रूके हम हज़ार बार चले ।
ना जाने कौन सी मट्टी वतन की मट्टी थी
नज़र में धूल, जिगर में लिए ग़ुबार चले
ये कैसी सरहदें उलझी हुई हैं पैरों में
हम अपने घर की तरफ उठके बार बार चले ।
ना रास्ता कहीं ठहरा, ना मंजिलें ठहरीं
ये उम्र उड़ती हुई गर्द में गुज़ार चले ।
फिल्म मम्मो का एक दृश्य यहां देखिए--
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10 टिप्पणियां:
गज़ल तो बेहतरीन है ही मगर क्लिपिंग देखने के बाद फिल्म देखने को भी जी चाहने लगा है.
शुक्रिया भाई यूनुस ग़ज़ल को खोज निकालने का. आपने तो फासला पार कर ही लिया ग़ज़ल तो ढूंड निकालने का.
आज सुबह यह ग़ज़ल सुनी. दिन अच्छा हो गया.
मैनें ये फ़िल्म दो बार देखी। बहुत अच्छी लगी। विशेषकर इसका वो सीन जहां फ़रीदा जलाल अपना डेथ सर्टिफ़िकेट दिखाती है - होठों पर मुस्कान और आंखों में आँसू एक साथ आते है।
यह ग़ज़ल सुनने में तो अच्छी है पर फ़िल्म में उतनी प्रभावी नहीं लगी। शायद इसीलिए भी निर्देशक ने पूरी ग़ज़ल का इस्तेमाल नहीं किया।
बेहतरीन जनाब. शुक्रिया. सर जी कहीं से जगजीत सिंह की ही आवाज़ में एक और गीत सुनवाने का जुगाड़ लगायें, बहुत दिनों खोज रहा हूँ.
"कैसे कैसे रंग दिखाए सारी रतियाँ .........
हम से ही हम को चुराए सारी रतियाँ ......."
बहरहाल आज की बेहतरीन ग़ज़ल के लिए एक बार फिर आभार.
vaah... film mammo bahut pahle didi ke chakkr me dekhi thi... bilkul bhi yaad nahi aa rahi story..!
ye durlabh song sunvane ka shukriya
युनूसजी बहुत बहुत शुक्रिया इस गजल के लिए.
मैंने भी बहुत पहले इसे ढूंढ़ने का प्रयास किया था. एक जगह मुझे इसका वीडियो भी मिला. लिंक यहां दे रहा हूं.
http://amitdas.wordpress.com/2007/09/07/one-of-my-all-time-favs/
फ़िल्म मन को छूने वाली थी……2-3 दफ़ा देखी थी,गज़ल याद नही ……सुनवाने का शुक्रिया…एक गज़ल की उम्मीद मे हम भी बैठे हैं यूनुस जी----भूपेंद्र की---हो सके तो सुनवायें " काश एक बार ऐसा हो जाये तुम सरे राह मुझको मिल जाओ"
यूनुस भाई,
क्या कह रहे हैं - निदा फ़ाजली? हुजूर, ये तो अपने गुलज़ार की रचना है. लगता है आप इंटरनेट पर ग़लत जगह ढूँढ़ रहे हैं :). इस ग़ज़ल की तो पूरी एक कहानी है. यहाँ पढ़िए.
पिछले कमेंट में कड़ी दिख नहीं रही. ये रही फिर से.
http://tinyurl.com/2txdbx
युनुस जी सच में ये फ़िल्म तो जैसे दिल को चीर कर रख गयी थी और फ़रीदाजलाल की अदाकारी तो बेमिसाल होती ही है। हां ये गजल याद नहीं थी पर अब जब शब्द पढ़ रहे हैं तो गजल भी अब भूलेगी नही। इसे यहां सुनवाने के लिए धन्यवाद्।
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