Sunday, January 18, 2009

'कल्‍ट-क़व्‍वालियां' पहली कड़ी-बहुत कठिन है डगर पनघट की: हबीब पेन्‍टर की आवाज़


पिछले दिनों तरंग पर मैंने अपनी अजमेर यात्रा का ब्‍यौरा लिखा था । और आपको बताया था कि किस तरह से दरग़ाह के ठीक बाहर मौजूद 'म्‍यूजिक स्‍टोर्स' से अपन ने कुछ क़व्‍वालियां जुगाड़ी हैं । भाई अनामदास ने काफी पहले कुछ क़व्‍वालियों की फ़रमाईश की थी तभी से कुछ 'कल्‍ट' क़व्‍वालियों पर श्रृंखला करने का विचार लगातार बना हुआ था । आखिरकार सारी चीज़ों को एक तरफ़ रखकर आज हमने 'क़सम' खा ही ली है कि क़व्‍वालियों पर अनियमित श्रृंखला का 'आग़ाज़' कर देंगे ।

दरअसल क़व्‍वालियों से हमारी कई निजी यादें जुड़ी हुई हैं । कुछ तकलीफ़देह तो कुछ मीठी । क़व्‍वालियों का इंसानी सहनशीलता के बाहर के डेसिबल पर IMG_0105 बजाया जाना सदा-सर्वदा से हमारे लिए तकलीफ़देह रहा है और मीठी यादें वो हैं जब हमने अपने जन्‍म के शहर 'दमोह' में पाकिस्‍तान के सीनियर साबरी ब्रदर्स को एक उर्स में गाते हुए सुना था । अज़ीज़ नाज़ां को सागर में एक उर्स में सुना । उर्स में हम केवल 'जिज्ञासावश' और 'अनुभव संसार को बढ़ाने' के तयशुदा मक़सद से ही जाते थे । क़व्‍वालियों से उस दौरान हमें ज़रा भी प्‍यार नहीं था । कई कारणों से क़व्‍वाली हमें सुहाती नहीं थी । उसकी वजह शायद धार्मिक-कट्टरता के तंग दायरों में सबेरे-सबेरे पागलपन की हद तक ज़ोरदार आवाज़ में क़व्‍वालियां बजाकर सिर दुखवाना रही थी ( ऐसा ननिहाल के शहर दमोह में जाकर हमेशा महसूस होता था ) पर जब समझदारी बढ़ी और अध्‍ययन बढ़ा तो क़व्‍वाली के महत्‍त्‍‍व का अंदाज़ा लगा और फिर जब हमने इन क़व्‍वालियों की खोजबीन शुरू की तो 'गंगा-जमना' में बहुत पानी बह चुका था । यही हाल 'बुंदेली लोकगीतों' की खोज का भी हुआ है । वो 'क्‍लासिक' लोकगीत जिनसे हमारी गर्मियों की छुट्टियां गुलज़ार होती थीं अब मिल ही नहीं रहे । जैसे 'मेरी बऊ हिरानी हैं' या 'बैरन हो गई जुनहईया मैं कैसी करूं' । देसराज पटैरिया, हरगोविंद विश्‍वकर्मा वग़ैरह की आवाज़ें । अगर कोई 'बुंदेला हरबोला' सुन रहा हो तो इस सिलसिले में हमारी मदद करे ।

ख़ैर जिन्‍हें हम 'क्‍लासिक' या 'कल्‍ट' क़व्‍वाली मानते हैं उनमें से कुछ तो मिल ही गयी हैं । ये पूरी श्रृंखला हम अनामदास जी को समर्पित कर रहे हैं । जिन्‍होंने एक बार इसरार किया और उनके 'नॉस्‍टेलजिया', उनकी बेक़रारी ने हमें मजबूर कर दिया कि हम उनकी ये 'तमन्‍ना' पूरी करें और इसी बहाने बचपन के गलियारों में भी सैर कर आएं ।

हबीब पेन्‍टर की इस क़व्‍वाली से श्रृंखला का आग़ाज़ हो रहा है । हबीब पेन्‍टर के बारे में ज्‍यादा जानकारी कहीं नहीं मिली । सिवाय इसके कि उनका ताल्‍लुक़ अलीगढ़ से था । इस श्रृंखला में आगे चलकर मजीद शोला, इस्‍माइल आज़ाद, मोईन नियाज़ी, शंकर शंभू, जानी बाबू, यूसुफ़ आज़ाद वग़ैरह की क़व्‍वालियां आपको सुनने मिलेंगी । नीचे इस क़व्‍वाली के बोलों के कुछ अंश पेश हैं ।


क़व्‍वाली-बहुत कठिन है डगर पनघट की
गायक हबीब पेन्‍टर
अवधि- 6:25

क़व्‍वाली के दीवाने
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बहुत कठिन है डगर पनघट की
कैसे मैं भर लाऊं मदवा से मटकी
कोई गुल को तरसता है कोई गुल को मसलता है
कोई महले-नज़ारा है, कोई फुरकत में जलता है
कहीं पर भीत के टुकड़े, कहीं पर घर बिखरता है
कहीं पर फर्शे-मख़मल है, कोई कांटों पे चलता है
किसी को तख़्त मिलता है, कोई सूली पे चढ़ता है
किसी की खाल खिंचती है कोई दुनिया में फलता है
हबीब अब कहता हूं बस मुख़्तसर ये है
जो उस पर जान देता है वही बरबाद रहता है
बहुत कठिन है डगर पनघट की ।।
मोहरूप संसार के लंबे लंबे पात,
धूप पड़े तो काम ना आवै छाया करते रात
दुर्बल डोले पर्वत-पर्वत, बाट तकै बलवान
पाके सागर ज्ञानी डूबे, मूरख बुद्धिमान
गूंगे दीपक-राग अलापें, बहरे ढोल बजायें
नैनसुख तो डगर में भटकें, अंधे गैल दिखाएं
मछली गोता खात पवन में, कागा जल में फिरते हैं
बगला तो सिंहासन बैठै, हंसा मारे फिरते हैं
ताल-तलैया छोड़ के धुबिया रेत में लत्‍ता धोए
धरती बरसे, बदरा सुलगैं अंधिया निश्‍चित होए
मस्जिद ऊपर बांग दे मुल्‍ला रखकर उंगली कान
घंटा बाजै मंदिर में कछु बहरो है भगवान
योगी-ज्ञानी शोर मचाएं देखो उल्‍टी रीत
गुरनन हैं ये कहें हबीब, झूठी जग की प्रीत
बहुत कठिन है डगर पनघट की ।।

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14 टिप्‍पणियां:

रविकांत पाण्डेय January 18, 2009 at 8:46 PM  

बहुत सुंदर! वैसे अमीर खुसरो के नाम से सुना है-
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
मैं जो गई थी पनिया भरन को
दौड़ झपट मोरी मटकी पटकी
निजामुद्दीन औलिया मैं तोरे बलिहारी
लाज रखो तुम हमरे घूँघट की।
लाज राखो मोरे घूँघट पट की।

इस पर थोड़ा विस्तार से बताएँ तो अच्छा हो।

दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi January 18, 2009 at 9:08 PM  

यह कव्वाली बहुत सुनी है। हर बार बहुत सुंदर लगती है।

मीत January 19, 2009 at 2:29 AM  

क्या बात है युनुस भाई. अर्से बाद सुनी ये लाजवाब क़व्वाली. बहुत बहुत शुक्रिया. अच्छा कुछ फ़िल्मी क़व्वालियों का दौर भी चले....... "बरसात की रात" की बात बाद में हो कभी लेकिन हमारी फिल्मों में भी क़व्वालिओं की कमी नहीं .... एक दौर शुरू करें ...

अनामदास January 19, 2009 at 10:25 AM  

कितना शुक्रिया अदा करूँ, कैसे करूँ. कर्ज़दार हो गया हूँ...पेंटर साहब ने रामकथा भी कमाल का गाया है, इंतज़ार रहेगा, जितना चाहिए.

नितिन व्यास January 19, 2009 at 12:33 PM  

यूनुसजी, बहुत बहुत धन्यवाद, कई सालों से हबीब पेंटर साहब की इस कव्वाली की तलाश कर रहा था, सुनवाने का शुक्रिया!, क्या ये डाउनलोड के लिये उपलब्ध है?

देसराज पटैरिया जी के लोकगीतों की तलाश जारी है!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` January 19, 2009 at 2:31 PM  

बहुत अच्छा सिलसिला शुरु किया है आपने -- जारी रखिये - और ऐसी दुर्लभ भूली बिसरी यादेँ हरी होने देँ -शुक्रिया --

Parul January 19, 2009 at 4:34 PM  

ajmer varnan ke baad se intzaar kar rahey the..hum sab es shrankhlaa kaa..shukriyaa

kanchan singh chouhan January 19, 2009 at 10:42 PM  

क़व्वालियाँ तो हमें सपरिवार पसंद आती हैं यूनुस जी! इस बार रक्षाबंधन को सिर्फ धागे बाँधने तक ना सीमित करने के लिये हम भाई बहनो ने दिन भर क़व्वालियाँ ही सुनी उसमें वो कैसेट भी याद किये गये जो पता नही कहाँ खो गये। उनमें से एक थी साबरी ब्रदर्स की कव्वाली
मुझे मौत दी या हयात दी, ये नही सवाल कि क्या दिया,
मेरे हक़ में तेरि निगाह ने कोई फैसला तो सुना दिया


इस सिरीज़ को मै बहुत एन्ज्वाय करूँगी

Manish Kumar January 21, 2009 at 12:59 AM  

kya baat hai..khoobsurat aaghaaz is srinkhla ka !

annapurna January 22, 2009 at 4:02 PM  

मैं रविकान्त पाण्डेय जी से सहमत हूँ।

इसके मुखड़े को एक फ़िल्मी क़व्वाली में बीच में इस तरह रखा गया -

बहुत कठिन है डगर पनघट की
कैसे लाऊँ भर जमना से मटकी
लाज राखो मोरे घूँघट पट की
प ध नि सा रे…

महेन January 23, 2009 at 3:03 AM  

मज़ा आ गया... मगर अधूरा मज़ा

बोधिसत्व January 23, 2009 at 5:47 PM  

भाई मजा आ गया
मेरे पास शंकर शंभू के कुछ रेयर रेकार्ड हैं जो मैंने अजमेर से लिए थे
आपको देना अच्छा लगेगा
आप की जय हो

anitakumar January 25, 2009 at 4:30 PM  

कव्वालियों के दिवानों की कतार में हम भी खड़े हैं। देर से आयी लेकिन महफ़िल से उठने वाली नहीं जब तक पूरी श्रृंखला खत्म न हो। बड़िया आगाज। मैं संगीत की सिर्फ़ रसिया हूँ जानकार नहीं। इस लिए एक सवाल का निदान चाहती हूँ। क्या कव्वालियां अलग अलग प्रकार की होती हैं। कल्ट कव्वाली की परिभाषा क्या है और और कितने प्रकार हैं कव्वालियों के। आशा है मेरी पसंद की एक कव्वाली का जिक्र आप जरूर करेगें "न तो कारागर की तलाश है" ।यूनुस जी इस श्रृंखला को शुरु करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

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